हमें भी न आया
तू ऐसा बीज थी
जिसे न मिली धूप
न हवा, न पानी
और न कोई खाद
फिर भी तू पनपी
पनपी ही नही
बन गयी एक पेड़
बरगद सी छाया
फिर तूने बसाया
अपना संसार
और कहलाई माँ
फिर बांटी तेजस धूप
पवन में भरी गंध
दूध से सींचे पौधे
हृदय को मथकर
लाई खाद
हुए तेरे
लख-लख पूत आबाद
एक बार फिर
व्यर्थ हुयी माँ
वह तेरी तपस्या
वह तेरा त्याग
क्योंकि
पुरुष होने के अहम् में
‘बीज’ की कद्र करना
फिर भी हमें न आया I
(मौलिक व् अप्रकाशित)_
Comment
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एक बार फिर
व्यर्थ हुयी माँ
वह तेरी तपस्या
वह तेरा त्याग
क्योंकि
पुरुष होने के अहम् में
‘बीज’ की कद्र करना
फिर भी हमें न आया I//
अति सुन्दर भाव ! अति सुन्दर रचना, आदरणीय गोपाल नारायन जी।
// एक बार फिर
व्यर्थ हुयी माँ
वह तेरी तपस्या
वह तेरा त्याग
क्योंकि
पुरुष होने के अहम् में
‘बीज’ की कद्र करना
फिर भी हमें न आया // , इन पंक्तियों ने बहुत कुछ कह दिया | बहुत सुन्दर कविता आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी , बधाई
आदरणीय गोपाल सर
बढ़िया कविता हुई है
हार्दिक बधाई
बहुत बढ़िया आदरणीय ...सादर नमस्ते
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