122 122 122 122
जहाँ वाले यूँ तो बताते रहे हैं
हमी अपनी ख़ामी छुपाते रहे हैं
वो अमराई , झूले वो पेड़ों के साये
बहुत देर तक याद आते रहे हैं
यूँ शह्रों की रोटी ने दी ज़िन्दगी है
मगर गाँव हमको लुभाते रहे हैं
क़दम दर क़दम इन थके पाँव को हम
महज़ ख़्वाबे मंज़िल दिखाते रहे हैं
ये बेहूदे पन अहदे नौ के हमेशा
मेरी सोच को बस सताते रहे हैं
ये कैसी मुहब्बत , ये कैसी वफा है
है अंदर नहीं पर जताते रहे हैं
ख़ुदाया तेरे नूर में भीगने, हम
ख़ुदी को हमेशा जलाते रहे हैं
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मैलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्री सुनील भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपका आभार ।
आदार्णीय राहुल भाई आपका बहुत शुक्रिया ।
आपकी गजल में अकसर तारीफ़ के अलावे कुछ कहने को नहीं रहता. सादर .
आदरणीय नरेन्द्र भाई , आपका बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीया निधि जी , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ।
अच्छी गज़ल के लिए बधाई
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