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2122 / 2122 / 212

 

आजकल जो मित्रवत व्यवहार है

एक धोखा है नया व्यापार है

 

सर्जना भी अब कहाँ मौलिक रही

जो पढ़ेंगे आप वो साभार है

 

वो मनुजता मारकर बैठे है मित्र

आपका रोना यहाँ बेकार है

 

किस तरह संवेदनाएं जुड़ सके

आज के सम्बन्ध तो बेतार है

 

देश में अदभुत व्यवस्था रच रहे

स्वप्न भी उनका कहाँ साकार है

 

पुष्प की वर्षा हुई तो जान लो

एक कंटक भी वहां तैयार है

 

हम गगन के स्वप्न में खोए रहे

और खिसका जा रहा आधार है

 

एक निर्धन को मनुज माना, चलो

आपका सबसे बड़ा उपकार है

 

जब मिले हैं बस उसे पत्थर मिले

वृक्ष शायद वह बहुत फलदार है

 

------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------

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Comment

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Comment by Sachin Dev on July 9, 2015 at 2:02pm

शानदार गजल हुई आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी ............

//

किस तरह संवेदनाएं जुड़ सके

आज के सम्बन्ध तो बेतार है //
संवेदनाएं जुड़ सके के स्थान पर सकें होना चाहिए शायद ....... बाकी आज के सम्बन्ध मैं धर्मेन्द्र जी के बताये अनुसार आपने सुधार कर ही लिए है .... सादर .....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 9, 2015 at 1:38pm

आदरणीया राजेश दीदी, यह प्रयास आपको पसंद आया, लिखना सार्थक हो गया. आपकी स्नेहपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.

बहुत दिनों बाद ब्लॉग पोस्ट कर रहा हूँ. इन दिनों अध्ययन, पठन और पाठक के रूप में अभ्यासरत हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 9, 2015 at 1:34pm

आदरणीय गिरिराज सर आपको प्रयास पसंद आया जानकार मन को संतोष हुआ. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार 

आपका मार्गदर्शन बहुत अच्छा है सही कहा कोई शब्द का अर्थ विस्तार अधिक है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 9, 2015 at 9:57am

किस तरह संवेदनाएं जुड़ सके

आज के सम्बन्ध तो बेतार है

 वाह्ह्ह्ह वाह्ह  बहुत सुन्दर प्रस्तुति हर युग्म शानदार  दिल से बधाई लीजिये मिथिलेश भैया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 9, 2015 at 5:18am

आदरणीय  मिथिलेश भाई , लाजवाब गज़ल हुई है , सभी अश आर बेहतरीन हैं । बधाई बधाई बधाई ।

एक कंटक भी वहां तैयार है    को ऐसा कहें तो -- कोई कांटा भी वहाँ तैयार है  ( एक - संख्या बताना मुझे कम अच्छा लगा है )

  

Comment by विनय कुमार on July 9, 2015 at 12:54am

हा , हा , ये भी खूब कहा आपने आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी । जरूर प्रयास करूँगा इस पर और आप की टिप्पणी भी चाहूँगा प्रयास पर । वैसे ग़ज़ल लिखना बहुत कठिन कार्य है और मैं तो इसमें बिलकुल ही अनाड़ी हूँ । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 9, 2015 at 12:35am
आदरणीय विनय जी
सराहना हेतु आभार।
आपको तुकांत रचते देखकर बहुत ख़ुशी हो रही है। ये बह्र तो आपने खूब पकड़ी है। इसी बह्र में एक ग़ज़ल आपकी भी आ जाए तो वाह वाह तय जानिए।
Comment by विनय कुमार on July 9, 2015 at 12:24am

// आप जैसा व्यक्ति मिलना है कठिन
आप तो साहित्य के सरदार हैं // , बहुत उम्दा , हर शेर बेहतरीन है , आखिरी शेर तो बस क्या कहने आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी । वाह वाह , बधाई इस रचना के लिए..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 9, 2015 at 12:08am
कृपया मिसरे को यूं पढ़ने का कष्ट करें-

किस तरह संवेदनाएँ जुड़ सके
आज का सम्बन्ध तो बेतार है

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 9, 2015 at 12:06am
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी आभार आपका सराहना हेतु।
आपने सही कहा 'के' के स्थान पर 'का' होगा। मैंने प्रिव्यू के समय एडिट किया था लेकिन पोस्ट नहीं हो पाया दोबारा पोस्ट करते समय भूल गया। त्रुटि पर ध्यान दिलाने के लिए आभार।

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