मुरली तो मन मोहनी, हरे जगत की पीर.
उसे चुरा कर राधिका, स्वयं हुई गम्भीर.
मुरली हर मन मोहती, लिये फकीरी रूप.
सरस कण्ठ निष्काम रख, छुए होंठ बन भूप.
बंशी तन में खोट पर, सरगम श्वांस स्वरूप.
अधरों को छूकर कर पगे, नवरस दिव्य अनूप.
घायल तन में आह नहि, नहीं तनिक अफसोस.
मुरली सबसे कह रही, पगें राग संतोष.
घायल मुरली कोसती, तन-मन बांस कठोर.
पर कान्हा के होंठ लग, गाती भाव विभोर.
घायल तन अति शोक मन, मुरली तो निर्जीव.
पर होंठों को चूम कर, तिहुं पुर करे सजीव.
दीन हीन घायल मगर, रहे कण्ठ से शाह.
श्वांस श्वांस सुमिरन लगन, बंशी भरे उछाह.
गांठ गांठ के बंध से, मुक्त हुआ जब बांस.
मिले घाव पर कण्ठ से, विहसें सरगम श्वांस.
बांस कण्ठ की वेदना, मनमोहन की आन.
अपने होंठों से लगा, उसको दें सम्मान.
होंठों पर मुरली सधी, नयन हुए त्यों बंद.
राधा मीरा गोपियां, सब पीतीं मकरंद.
के.पी. सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ० केवल जी
बहुत सुन्दर दोहे. बधायी हो .
सुंदर और भाव पूर्ण दोहे रचे है श्री केवल प्रसाद जी | इसके लिए हार्दिक बधाई स्वीकारे | प्रथम दोहे के तृतीय चरण में लय भंग लग रही है | इसे यूँ लिखा जाय (अगर उचित लगे) तो, कृपया देखे -
मुरली तो मन मोहनी, हरे जगत की पीर. - मुरली तो मन मोहिनी, हरे जगत की पीर,
राधा उसको चुरा कर, स्वयं हुई गम्भीर. उसे चुरा कर राधिका, हुई स्वयं गंभीर |
सादर
आदरणीय केवल प्रसाद जी
सादर अभिवादन
बधाई
आदरणीय केवल प्रसाद जी सुन्दर दोहावली हुई है हार्दिक बधाई
मुरली की व्यथा कथा बड़े सुन्दर ढंग से शाब्दिक हुई है
इस पद में टंकण त्रुटी हुई है संभवतः
//राधा उसको चुरा कर, स्वयं हुई गम्भीर.//
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