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लघुकथा – अंतर

रवि महेश के अनर्गल प्रलाप को यह सोच कर अनदेखा कर देता है कि हाथी चले बाजार , कुत्ते भूके हजार, “ इस पागल के मुंह कौन लगे. जब मुंह दुखने लगेगा, चुप हो जाएगा.”

और महेश यह सोच कर अनर्गल प्रलाप करता है , “ दुनियां में बहुत से लोग ढीठ, बेशर्म, नालायक और पागल  होते है . जब तक उन्हें अंटशंट न बोला जाए और गालीगुप्ता न की जाए वे काम नहीं करते है.”

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मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by विनय कुमार on July 20, 2015 at 5:33pm

अपना अपना नजरिया , बढ़िया रचना | बधाई आदरणीय..

Comment by Omprakash Kshatriya on July 20, 2015 at 7:07am

आदरणीय मिथिलेश वामनकर  जी 

प्रणाम .

इस बार समालोचना नहीं की. इस का मतलब रचना सामान्य ही है .

इस की कुछ कमी बताते तो उसे दूर किया जा सकता था.

आभार आप का 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 19, 2015 at 10:02pm

आदरणीय ओमप्रकाश जी बढ़िया प्रस्तुति. हार्दिक बधाई 

Comment by Omprakash Kshatriya on July 19, 2015 at 10:36am

आदरणीय TEJ VEER SINGH  जी 

आप की लघुकथा पर उपस्थिति एक ख़ुशी का एहसास देती है .

आभार आप का 

Comment by TEJ VEER SINGH on July 19, 2015 at 10:15am

आदरणीय ओम जी,दो व्यक्तियों की सोच के अंतर को बडे सधे हुए तरीके से परिभाषित किया है!हार्दिक बधाई!

Comment by Omprakash Kshatriya on July 19, 2015 at 8:08am
आदरणीय प्रदीप कुमार कुशवाह जी
आप की प्रतिक्रिया के लिए आभार
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 18, 2015 at 11:31pm

दोनों अपनी जगह ठीक , 

वाकई  लघु कथा  में अंतर 

सादर बधाई 

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