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'कॉमन' (लघुकथा ‘राज’)

 “वहीँ होगा तुम्हारा  लाड़ला इस वक़्त भी है न ? कितनी बार कहा दोस्ती बराबर वालों से ठीक है  सर्वेंट के उस लड़के से उसने क्या समझ के दोस्ती की? कुछ तो कॉमन हो... पर तुम क्यूँ समझाती, खुद भी तो.... छोटे घर की... छोटी सोच ...

जैसे संस्कार हैं वही तो बच्चे को दोगी” व्हीस्की का घूँट गले में उतारते हुए मोहित बोला|

“हाँ पापा है न एक चीज कॉमन !! उसके पापा भी रोज ड्रिक करके इतनी रात  गए घर में आते हैं और उसकी मम्मी पर इसी तरह चिल्लाते हैं, मेरी मम्मी की आँखें भी बरसती हैं और उसकी मम्मी की भी” बेटा अचानक अन्दर आते हुए बोला|

.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 20, 2015 at 9:43am

आ० ओमप्रकाश जी, लघुकथा  के अनुमोदन हेतु दिल  से आभार आपका.  

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 19, 2015 at 10:27pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी 

सादर अभिवादन 

बधाई हो लघु कथा पर 

बहुत बढ़िया बात कही , जय हो 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 19, 2015 at 9:32pm

आदरणीया राजेश दीदी, बढ़िया और सफल लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई निवेदित है.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 19, 2015 at 6:59pm

अच्छी लघुकथा

Comment by TEJ VEER SINGH on July 19, 2015 at 12:08pm

आदरणीय राजेश जी,बहुत गहरी और संवेदनशील बात कहला दी आपने एक मासूम के मुंह से! अच्छी लघुकथा!हार्दिक बधाई!

Comment by Omprakash Kshatriya on July 19, 2015 at 10:44am

“हाँ पापा है न एक चीज कॉमन !! उसके पापा भी रोज ड्रिक करके इतनी रात  गए घर में आते हैं और उसकी मम्मी पर इसी तरह चिल्लाते हैं, मेरी मम्मी की आँखें भी बरसती हैं और उसकी मम्मी की भी” बेटा अचानक अन्दर आते हुए बोला|

जोरदार पञ्च लाइन . बधाई .

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