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"सुमन, गुरु जी के आशीर्वाद से तुम्हारा घर तो स्वर्ग बन गया है। अब गालियों की नहीं बल्कि सतसंग के भजनों की आवाजें आती रहती हैं।"
"हाँ बहन! सही कह रही हो" - सुमन ने सहमति जताते हुए कहा।- 'अब हकीकत भी कैसे बताए कि पहले पति की कमाई ठेके पर जाती थी और अब आश्रम में.....।'

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by maharshi tripathi on July 22, 2015 at 7:23pm

बहुत सुन्दर ,लघुकथा आ. Vinod Khanagwal जी ,बधाई आपको |

Comment by TEJ VEER SINGH on July 21, 2015 at 3:47pm

आदरणीय  विनोद जी,बहुत ही उमदा लघुकथा!नशे के कितने रूप होते हैं!सुंदर व्याख्या!हार्दिक बधाई!

Comment by Omprakash Kshatriya on July 21, 2015 at 12:10pm
आ विनोद जी
प्रभावशाली लघुकथा के लिए बधाई आप को ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 21, 2015 at 10:35am
सार्थक लघुकथा के लिये बधाई।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on July 20, 2015 at 10:40pm
लत या आदत किसी भी चीज हो जाये एक नशा ही बन जाती है, इसी अवधारण को मजबुत करती सुन्दर रचना। आद: विनोद भाई जी इस सार्थक लघुकथा के लिये सादर बधाई।
Comment by pratibha pande on July 20, 2015 at 10:34pm

बढ़िया  लघु कथा  विनोद जी ,  बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 20, 2015 at 10:23pm

नशा हो या लत कोई भी जो घर में आग लगाता हो वो बुरा ही है विषय को सार्थक करती प्रस्तुति सुन्दर लघु कथा ,हार्दिक बधाई आ० विनोद जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 20, 2015 at 5:57pm

आदरणीय विनोद जी नशा शीर्षक को सार्थक करती सफल लघुकथा हुई है. विडम्बना का स्वरुप बदला है मगर लत लगी हुई है. बहुत बढ़िया .....बल्कि शानदार.....प्रस्तुति ... हार्दिक बधाई ...

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