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ग़ज़ल - पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है -( गिरिराज भंडारी )

22  22  22   22   22  2

शीशा से पत्थर जब भी टकराता है

पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है

 

मुँह की बातों का,  आँखें प्रतिकार करें

सही अर्थ तब शब्द कहाँ जी पाता है 

 

लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन

लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है

 

साजिंदों ने यूँ बदलें हैं साज बहुत 

गाने वाला गीत पुराना गाता है 

 

तुम पर्वत पर्वत कूदो , मै नदिया तैरूँ

मित्र, हमारा बस ऐसा ही नाता है

 

फिर से ताज़ा मत कर लेना जख़्मों को

घाव सूखते वक़्त बहुत खुजलाता है

 

अब्र ! सुफैदी में अपनी कालिख भर ले

इक सादा दिल, प्यासा तुझ तक आता है

 

यूँ तो बातें खूब सुनी  है  मैनें  भी

गया सुबह वो, संझा वापस आता है

 

कल आँधी आयी थी, देखो गुलशन में

आज परिंदा फिर से नीड सजाता है

 

अपना गुस्सा पुल पे क्यों दिखलाते हो

दो ग़ैरों को ये तो बस मिलवाता है

 

भ्रम में मत पड़ना मेरी मुस्कानों से

निजाम, अड़ा के नेजा मुझे हँसाता है

***********************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2015 at 8:43pm

आदरणीय गिरिराज सर लाजवाब रचना है, हर शे र के लिये दाद हाज़िर है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:12pm

आदरणीय गिरिराज सर, शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए.

मतले पर चर्चा हो गई है जो संशोधन के बाद हासिल-ए-ग़ज़ल भी है ....

ये शेर खूब कहा ---

लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन

लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है

क्या क़रारा व्यंग्य है...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:39pm

आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥  आपकी सलाह अनुसार शीशा को शीशे कर लूँगा । आपका बहुत शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:37pm

आदरणीय नरेन्द्र भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:37pm

आदरणीय राहुल भाई , आपका बहुत बहुत आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:36pm

आदरणीय हर्ष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:35pm

आदरणीय विजय भाई , सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:35pm

आदरणीय नादिर खान भाई , बहुत दिनो बाद आपकी उपस्थति से मन खुश हो गया । हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:33pm

आदरनीया कांता जी , हौसला अफज़ाई का दिली शुक्रिया ।

Comment by Samar kabeer on July 27, 2015 at 11:40am
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
मतले के ऊला मिसरे में "शीशा" को "शीशे" कर लें या फिर अगर शीशा ही रखना है तो ये मिसरा इस तरह लिखना होगा :-
"शीशा पत्थर से जब भी टकराता है"

ये दो option हैं ,देख लीजियेगा ।

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