अपनी जान बचा तो पाया,
डूबा था पर बाहर आया।
जब इल्ज़ामों की बारिश थी,
पास नहीं था मेरे साया।
मुझको गैर बताकर उसने,
हाय गजब ये कैसा ढाया।
तन्हाई में खाली दिल ने,
साज़ उठाया नग़मा गाया।
जबसे सच्चाई जानी है,
हर रिश्ते से दिल घबराया।
प्यार भरा दिल तोड़ा जिसने,
मानो उसने मंदिर ढाया।
कुछ मिसरे ये टूटे फूटे,
हैं मेरा सारा सरमाया।
हम 'इमरान' मुहब्बत करके,
कर बैठे हैं जीवन ज़ाया।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
जनाब समर कबीर साहब, आपने अपने इस्लाही कमेंट से नवाज़ा मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ. 'जाया' के बारे अपने जो जानकारी दी उसका इल्म अभी तक मुझे नहीं था.... आखिरी शेर को इस तरह कर रहा हूँ.... 'हमने यार मुहब्बत करके, जीवन को बेकार बनाया'....
नज़रे सानी कीजियेगा...
गिरिराज जी आपको ग़ज़ल पसंद आई शुक्रगुज़ार हूँ में आपका
आपका शुक्रिया जनाब मिथलेश साहब
बहुत बहुत शुक्रिया शिज्जू साहब
बेहतरीन जनाब इमरान साहब हर शेर के लिये दाद हाज़िर है
छोटी बहर की इस शानदार गज़ल के लिए शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं आदरणीय इमरान जी .....
आदरणीय इमरान भाई , छोटी बहर मे क्य खूब गज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये ॥
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