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आदरणीय समर जी आपकी ग़ज़ले बेहद उम्दा होती हैं प्रस्तुत ग़ज़ल में बड़ी ही सहजता से बहुत कुछ कहा गया है .मौत का एक दिन मुअय्यन है"
वक़्त से पैशतर नहीं आती
दिन में सोते हैं और पूछते हैं ?
"नींद क्यूँ रात भर नहीं आती"
ये दो शेर इस ग़ज़ल के मेरे पसंदीदा शेर हैं
.इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर
आरणीय समर कबीर साहब
हर शेर पर बरबस ही वाह वाह निकल रही है
क्या खूब ग़ालिब साहब के मिसरो का इ्रस्तेमाल किया है
दिली दाद कुबूल कीजिये
"मौत का एक दिन मुअय्यन है"
वक़्त से पैशतर नहीं आती
वाह इन खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ इस ग़ज़ल के हर शे'र के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं आदरणीय समर कबीर साहिब।
वाह वाह वाह
क्या खूब ग़ज़ल हुई है वाह वाह वाह
आदरणीय समर कबीर जी, अभिभूत हो रहा हूँ इन चार अशआर को पढ़ कर
आप रूठे हुए हैं जिस दिन से
"कोई उम्मीद बर नहीं आती"
बच निकलने की,ज़िन्दगी तुझसे
"कोई सूरत नज़र नहीं आती"
"मौत का एक दिन मुअय्यन है"
वक़्त से पैशतर* नहीं आती *पहले
दिन में सोते हैं और पूछते हैं ?
"नींद क्यूँ रात भर नहीं आती"
इस आनंद को शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता हूँ. अशआर ऐसे हुए है जैसे दुआयें कुबूल हो गई है ....
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