खुद को देशभक्त समझने वाले राम ने रहीम से कहा, “तुमने देशद्रोह किया है।”
रहीम ने पूछा, “देशद्रोह का मतलब?”
राम ने शब्दकोश खोला, देशद्रोह का अर्थ देखा और बोला, “देश या देशवासियों को क्षति पहुँचाने वाला कोई भी कार्य।”
बोलने के साथ ही राम के चेहरे का आक्रोश गायब हो गया और उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे किसी ने उसे बहुत बड़ा धोखा दिया हो। न चाहते हुए भी उसके मुँह से निकल गया, “हे भगवान! इसके अनुसार तो हम सब....।”
रहीम के होंठों पर मुस्कान तैर गई।
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेंद्र जी,
हमारे इलाहाबाद के मीरापूर मुहल्ले में एस एस खन्ना स्कूल के सामने एक चाट वाला है. वो आलू टिकिया बनाते समय केवल मिर्ची डालता है. पूरे तवे पर ’हरी’ और ’लाल’ मिर्ची ही बिखरी रहती है. लोग खाते हैं आंखे लाल कर के, वाही तबाही बकते हुये,
कथा पढ कर जाने क्यूँ उसकी याद आ गयी,
सादर.
आ. धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी ,मैं अभी इस लायक नही की मैं आप (अर्थात बड़ों ) को सलाह दे सकूँ परन्तु आ.यदि आप इसं तरह के नामों का प्रयोग करेंगे तो कुछ पाठकों के मन में गलत धारणा पनपेगी ,जैसा की भाई krishna mishra 'jaan'gorakhpur जी ने कहा है ,,आपकी लघुकथा के भाव पर आपत्ति नही उठायी है,आपने जिस विषय को कथा में पिरोया है वह निश्चित ही काबिलेतारीफ है,परन्तु आपने राम रहीम का नाम देकर थोड़ी से गलती कर दी , ,,आप से आशा है आप आगे से इन बातों का ध्यान रखेंगे ,,आ. अगर मैं कुछ गलत कह गया हूँ तो मुझे छमा करें |
आ० सौरभ सर ने चर्चा में विस्तार जो बातें रक्खी हैं,उससे हम सभी को लाभ होगा!!........आ० भाई धर्मेद्र ज़ी मैं बस इस ओर् आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा के किसी ने भी लघुकथा के भाव पर आपत्ति नही उठायी है,आपने जिस विषय को कथा में पिरोया है वह निश्चित ही काबिलेतारीफ है,देशद्रोह को धर्मविशेष से अक्सर जोडा जाता है,पर सच्चे मायने में वो हर शख्स चाहे वह किसी भी धर्म का हो देश विरोधी गतिविधि में लिप्त है तो देशद्रोही है...इतिहास गवाह है कि अपने हित के लिए हिन्दू राजाओं ने किस प्रकार देशधर्म को ताक पर रख विदेशी आक्रान्ताओं का साथ दिया,ब्रितानिया हुकूमत के फलने-फूलने में भी ये देशद्रोही ही सबसे बडी भूमिका में रहे!............................हमें आपत्ति बस इस बात पर है कि राम/रहीम जैसे पूजनीय शब्दों की महिमा उनके स्तर को समझे,ये केवल शब्दभर नही है, बल्कि करोड़ो लोगों के आस्था से अटूट रूप से जुड़े है...इनका प्रयोग बहुत सावधानी व् जिम्मेदारी के साथ होना चाहिए!
वो बात सारे फ़साने में जिसका जिक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है
फैज सर का यह शेर कई दिन से गुनगुना रहा था.....अगर इसी के सापेक्ष में मै अपनी बात कहूँ तो....यूँ समझिये आपकी लघुकथा में जो भाव है/या फ़साना है उसका राम/रहीम से दूर दूर तक कही कुछ लेना देना नही है! का जिक्र आपने ही किया है इसी बात पर आपत्ति हैं!..सादर!
//रचना अगर पाठक को संतुष्ट कर देती है तो ऐसी रचना का क्या अर्थ है.. .. रचनाकार का धर्म संतुलन बनाए रखना नहीं वरन ये दिखाना है कि कौन सा पलड़ा कितना भारी है। संतुलन बनाए रखने के लिए तो हल्के पलड़े पर झूठ का भार लादना पड़ता है। संतुलन कलाबाज बनाता है कलाकार नहीं। ... .. . बाकी लिखूँगा तो मैं वही जो मैं लिखना चाहता हुँ न कि वो जो पाठक पढ़ना चाहता है। //
आदरणीय, क्या कह गये ? वह भी किस बात को कैसे आवरण के साथ कह रहे हैं ?
भाईजी, कोई रचना पाठक को ही संतुष्ट करती है, न कि रचनाकार को. फिर, पाठक के संतुष्ट होते ही, रचनाकार को अपने प्रयास का प्रतिफल मिल जाता है. और रचनाकार भी अपने किये पर संतुष्ट होने लगता है आगे अपने प्रयास को और सघन तथा सान्द्र करने के लिए. धर्मेन्द्रजी, इन मायनों में ’पाठकों का संतुष्ट होना’ रचनाकार को ऊर्जस्वी करता है. यदि किसी रचना से रचनाकार स्वयं ही संतुष्ट होने लगे, और पाठक असहज होने लगे --जिसे आप ’रचना पाठक को सोचने पर मजबूर न करे, उसके चैन उसकी नींद में खलल न डाले’ आदि से मेन्शन कर रहे हैं-- तो यह अवस्था व्यापकता माँगती है. अन्यथा, ऐसी सोच किसी रचनाकार केलिए भयंकर आत्ममुग्धता का वातावरण बनाती है. फिर रचनाकार ही नहीं साहित्य का क्षरण होने लगता है. रचना को समाज् में आने की आवश्यकता ही क्या है ? डायरी के पन्ने अधिक मुफ़ीद होंगे न ? डायरी को खोल कर रचनाकार जब चाहे रचना को पढ़-देख-छू सकता है तथा निर्द्वंद्व मुग्धावस्था में घोर निमग्न बना रह सकता है !
अन्यथा न होगा धर्मेन्द्रजी, इसका सुन्दर उदाहरण रीतिकाल के बाद हुए तारी माहौल को समझ कर हम जानें. सामान्य पाठक भलेही कितना ही काव्य-रसिक क्यों न हो, उसकी अपनी वास्तविक ’सोच’ उन रचनाओं से तारतम्यता ही नहीं बैठा पारही थीं. न सामान्य रसिक-पाठक उनसे एक सीमा के बाद अपने को जोड़ पाता था. पाठक की अन्य भावनाओं को स्वर और शब्द देने में वो रचनायें लसर रही थीं. रीतिकाल की वो रचनायें आगे जुगुप्साकारी माने जाने लगीं. आज कोई सामान्य काव्य-रसिक उन्हें सहज ढंग से पा नहीं सकता. घनानन्द को पढ़ने के लिए विशेष प्रयोजन करना पड़ता है. जबकि बिहारी क्लिष्ट हो कर भी सहज रूप से पाठ्यक्रम के माध्यम से कमसेकम विद्यार्थियों के बीच प्रासंगिक तो हैं !
आगे देखिये, पद्य साहित्य से ’गीत’ भी इसी कारण हाशिए पर चले गये. यह आप भी खूब जानते हैं. कि, गीत भी लिजलिजे दैहिक सम्बन्धों, कई अर्थों में निरर्थक संयोग-वियोग वर्णन तथा गलदश्रु भावनाओं के गलीज़ संप्रेषण अधिक होते चले गये थे. किन्तु उनके रचनाकार आत्ममुग्ध हुए, या मात्र एक वर्ग विशेष को संतुष्ट करते हुए, गेय-वर्णन करते रहे. और इधर जीवन-कर्म में धुका हुआ सामान्य पाठक उन रचनाओं से निर्लिप्त होता चला गया. पाठक और रचनाकार के बीच बन गयी इन्हीं असहज परिस्थितियों को नकारने के लिए गीत की नयी शाखा ’नवगीत’ का प्रस्फुटन हुआ. आज ’नवगीत’ पद्य साहित्य की धुरी हैं. इस तथ्य को नामवर सिंह जैसा समीक्षक आलोचक भी मानने को बाध्य हुआ है, जो एक समय पद्य साहित्य में गेय रचनाओं के ’मर जाने’ की घोषणा करने वाले समूह का पुरोधा सदस्य हुआ करता था. मैं किसी एक समीक्षक का महिमा-मण्डन नहीं कर रहा हूँ. बल्कि पाठक और रचनाकार के बीच के अत्यंत निराले सम्बन्ध पर समझ बना रहा हूँ. विश्वास है, आप मेरी बातों से संतुष्ट होंगे.
धर्मेन्द्रजी, किसी वाद और मंतव्य के तहत किसी रचना का आना एक विशेष परिस्थिति है. यह परिस्थिति भारतीय रचनाकर्म की मूलभूत सोच नहीं है. यह आयातित है. इसके प्रतिफल पर अब जाकर विवेचना शुरु हुई है. जबकि भारतीय मान्यताएँ इंगितों के माध्यम से शाब्दिक अधिक हुआ करती हैं. इसीकी बात कुछ पाठक आपकी प्रस्तुत रचना पर कररहे हैं. भले ही, उनको यह मालूम न हो कि कहना कैसे है. लेकिन क्या कहना है, वे अवश्य जानते हैं और इंगित कर रहे हैं.
किसी वर्ग को खिजला कर, या उसको ’उंगली कर’ अपनी मान्यताओं और सोच के परिणाम को प्रस्तुत करना क्लिष्टता का परिचायक है. मैं उपदेशक नहीं बनना चाहता, न दिखना चाहता हूँ. लेकिन रचनाकर्म और साहित्य का लक्ष्य पाठक हैं. वर्ना, रचनाओं के प्रति रचनाकार की आत्ममुग्धता वस्तुतः आत्मरति की प्रारम्भिक दशा है, जोकि नितांत वैयक्तिक आचरण का पहलू है. इसमें अन्यान्य का सहयोग अनावश्यक ही समझा जाता है. या स्ववैचारिक की संभावना हो सकती है. रचनाकर्म के प्रति ऐसी कोई धारणा असाहित्यिक है, भाईजी.
एक बात और, इन सबों में कबीर की सामाजिक सार्थकता और धरनीदास या रैदास की स्पष्टता को प्राणवान होता मत देखियेगा. उस अवस्था में आने के पूर्व आचरण-द्वंद्व समाप्त कर रचनाकार से साधु (उच्च मनोदशा का महाप्राण) होना पड़ता है. और, पाठक, समाज को साथ उठाना होता है. खिजलाना नहीं. व्यापक सोच अच्छी है, लेकिन उसका सहज तथा सर्वसमाही होना उससे भी भला होता है.
शुभ-शुभ
आदरणीय कृष्न मिश्रा जी मैंने राम / रहीम को किसी धर्म विशेष के संबंध में प्रयोग नहीं किया है। मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ। और अब ये शे’र याद आ ही गया है तो
वो बात सारे फ़साने में जिसका जिक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है
रचना को अपना कीमती समय देने के लिए धन्यवाद। आपकी बात बिल्कुल सही है कि पाठकवर्ग अपनी समझ के अनुसार ही भाव लेगा। देखिए बाबा तुलसी याद आ गए
जा की रही भावना जैसी
प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी
आदरणीय सौरभ जी, रचना अगर पाठक को संतुष्ट कर देती है तो ऐसी रचना का क्या अर्थ है। फिर तो आपने वही लिखा जो पाठक पढ़ना चाहता है। रचना पाठक को सोचने पर मजबूर न करे, उसके चैन उसकी नींद में खलल न डाले तो फिर रचना है ही क्यूँ। रचनाकार का धर्म संतुलन बनाए रखना नहीं वरन ये दिखाना है कि कौन सा पलड़ा कितना भारी है। संतुलन बनाए रखने के लिए तो हल्के पलड़े पर झूठ का भार लादना पड़ता है। संतुलन कलाबाज बनाता है कलाकार नहीं।
लघुकथा पर आने और अपने विचारों से अवगत कराने के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ बाकी लिखूँगा तो मैं वही जो मैं लिखना चाहता हुँ न कि वो जो पाठक पढ़ना चाहता है। स्नेह बना रहे। :)
आ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी बेहद ही खूबसूरत पेशकश आपकी ! जिस जगह आपने पञ्च दिया है वो सोच को बहुत गहरे सोचने को मज़्बूओर कर देता है..यही कहानी की विशेषता है ..मेरी जानिब से ढेरों दाद !! वसूल पाइयेगा !
आदरणीय मनोज जी, इस लघुकथा के किस शब्द से आपको लगा कि राम / रहीम किसी विशेष धर्म से संबंधित हैं। पूर्वाग्रहों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है। क्षमा माँगने जैसी कोई बात नहीं है। पाठक को अपनी बात रखने का पूरा हक है। मंच के विद्वानों के विचारों का तह-ए-दिल से स्वागत है।
मैं आ० भाई मनोज के विचारों से सहमत हूँ...जो बात बिम्बात्मक रूप से कही जा सकती है उसे धर्मविशेष से जुड़े शब्दों के प्रयोग करने से अनावश्यक बातों/तत्वों को तूल मिलता ही है...कथा का मूलभाव भी दब जाता हैं! पाठकवर्ग अपनी समझ के स्तर अनुसार ही भाव को लेगा अतः लेखक को अपनी ज़िम्मेवारी के प्रति सचेत रहना चाहिए!
सादर!
आपकी लघुकथा उसी लिहाज में है आदरणीय धर्मेन्द्रजी, जिस ढर्रे का आजकल फ़ैशन चल रहा है. यह फ़ैशन आजकल हिट है. :-))
हिट फ़ॉर्मूले का प्रयोग अब कौन न करना चाहेगा ? तिसपर पाठक भी अपने-अपने हिसाब से अपने-अपने मंतव्यों की ओट में विषयवस्तु से संतुष्ट होना चाहता है. इसे संतुलित ढंग से निभाने का भी दायित्व एक रचनाकार पर ही है. इस धर्म को रचनाकार कैसे भूल सकता है ? यदि ’धर्म’ शब्द से उसे खुजली न हो तो ’धर्म’ को सही परिप्रेक्ष्य में निभाना भी ’धर्म’ ही है. तभी इसके निर्वहन में साहित्यकार ही नहीं हर सामाजिक का ’दायित्वबोध’ खुल कर आधार पायेगा.
;-))
वैसे लघुकथा शिल्प के तौर पर सटीक और समृद्ध है. कहन विन्दुवत है. तथा कथानक में इंगित-उक्ति की सहज अंतर्धारा है.
ओह, ये मैं कुछ अधिक नहीं कह गया ? इस विधा पर मैं शिल्पगत चर्चा का अधिकारी नहीं हूँ. अभी स्वयं ही अभ्यासी हूँ.
इस विशिष्ट लघुकथा के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ.
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