'ला सत्ते की बहू! कुछ काम हो तो बता दे, एक कप अदरक वाली चाय भी पिला दे, आज कुछ तबियत भी ढ़ीली सी लग रही है। फिर सुना है, पंडताईन की बहू के बेटा हुआ है---, ज़रा होकर आऊंगी, मुझे याद कर रही होगी। नंबरदारनी के भी जाना है, कह रही थी, दादी ! ज़रा सिर में तेल डाल देना-----।' रह रह कर गूंज रहे थे, उसके आखिरी शब्द, मेरे कानों में।
यही क्रम था असगरी नायन का रोज़ का। सारा गांव उसे दादी कहकर ही बुलाता था।
दिन निकलते ही अपने घर की झाड़ू - बुहारी कर निकल जाती गांव में व शाम को ही घर लौटती।
लोगों के छोटे - मोटे काम कर देती व बदले में नाश्ता - खाना या कभी कपड़े-लत्ते पाकर ही संतुष्ट हो जाती। इससे अधिक उस अकेली जीव को चाहिए भी क्या था।
किस्मत ने ऐसा खेल खेला- न बच्चे, न पति सब एक हादसे में मारे गए। रिश्तेदारों ने भी किनारा कर लिया। वह गांव छोड़कर जाना भी नहीं चाहती थी। उसकी नज़रों में तो लोगों का प्यार ही जिलाए हुए था उसे ।
उसके अकेलेपन के बारे में ज़िक्र आता कभी तो कहती ,’ इतनी भी बेमुरव्वत नहीं है दुनिया। तुम सब हो न ! मेरा खयाल रखने के लिए।‘
दिन में पता नहीं कितनी बार यह जुमला उसकी जुबान पर आता।
पिछले तीन दिन से उसे किसी ने नहीं देखा था। आज उसके घर में से उठ रही दुर्गंध ने ही आस-पास के लोगों का ध्यान खींचा । उसका शव सड़ी- गली अवस्था में जाने कब से घर में पड़ा था।
दुनिया ने आखिर साबित कर ही दिया कि "बड़ी बेमुरव्वत है ये दुनिया"।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
लघुकथा अच्छी हुई है आ० डॉ नीरज शर्मा जी, हालाकि कहने की शैली से किस्सागोई की झलक ज्यादा आ रही है I हर रोज़ आने जाने वाली असगरी नायन का तीन दिन तक दिखाई न देना और उसकी कोई खोज खबर लेने की चेष्टा न करना हालाकि प्रथमदृश्या बेहद अटपटा सा अवश्य लगता है, किन्तु यही चीज़ "बेमुरव्वत" शब्द को सार्थक भी कर रही है I बहरहाल इस लघुकथा पर मेरी हार्दिक बधाई प्रेषित है I
आदरणीय सौरभ पांडे जी , रचना पर दृष्टिपात करने के लिए हार्दिक आभार। मैं कोई अपनी रचना का बचाव नहीं करना चाहती, किन्तु यहां के गांव अब पहले जैसे गांव नहीं रहे हैं , आधुनिकता ने वहां भी धीरे धीरे दस्तक दे ही दी है, मैं स्वयं नौ वर्ष गांव में ही रही हूं, लोगों में वो पहले वाली मासूमियत या यूं कहें कि नादानी नहीं रही है, फिर कथा के शुरू में ही पात्र की तबियत ठीक न होने का ज़िक्र भी किया गया है। गांवों के बदल जाने की वेदना तो, गांव पर हर लिखने वाले की रचना में झलक ही जाती है, चाहे वह कहानी हो, कविता हो, ग़ज़ल हो। यथार्थ का चित्रण ही होना चाहिए रचना में ,समय के अनुकूल, न कि कोरी कल्पनाशीलता, ऐसा मेरा मानना है, कम से कम लघुकथा में तो।
आपके प्रत्युत्तर की अपेक्षा के साथ, आभार।
एक ऐसा पात्र जो हाल तक गाँव की ज़िन्दग़ी का अहम हिस्सा हुआ करता था. लेकिन ऐसे हिस्से का दो-तीन दिनों तक न दिखना और गाँव वालों का उत्सुक न होना तनिक चकित करता है. क्योंकि एक पहर के लिए कोई न देखे जिसकी अपेक्षा होती है तो गाँव वालों के आँख-कान चौकन्ने हो जाते हैं.
वैसे आपकी किस्सागोई सार्थक है. इस प्रयास केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीया नीरजजी..
बहुत बहुत आभार आप सबका आ. रवि प्रभाकर जी, आ.जवाहर लाल सिंह जी, आ.मोहन बेगोवाला जी, आ कान्ता रॉय जी, आ गोविंद पंडित जी, आ. तेजवीर सिंह जी। रचना पर अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए।
आदरणीया नीरज शर्मा जी, बहुत सधी हुई कथा कही आपने । दैनंदिन की साधारण सी दिखने वाली घटना का बहुत स्टीक व जीवंत चित्रण किया आपने अपनी लघुकथा के माध्यम से । वाकई 'बड़ी बेमुरव्वह है ये दुनिया' । शीर्षक का चयन भी प्रशंसनीय है। सादर बधाई
बड़ी मार्मिक और दर्दनाक चित्र उकेरा है आपने - दुनिया ने आखिर साबित कर ही दिया कि "बड़ी बेमुरव्वत है ये दुनिया"।
आदरणीया नीरज जी, ऐसे पात्र अब भी गाँवों में अक्सर मिल जाते हैं,जिन का आपकी लघुकथा जैसा ही अंत होता है, इस समस्या को लघुकथा देने के लिए धन्यवाद
आदरणीया नीरज जी , ऐसे पात्र अभी भी हमारे गाँव में मिल जाते हैं,जिन का अंत आपकी लघुकथा कि पात्र जैसा होता हैं, आप जी ने एस समस्या को उभारा..........
आ. निरज मैडम जी, आपकी यह प्रस्तुति अत्यंत मार्मिक लगी. हार्दिक बधाई.
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