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बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने की
मुझे फिर घेर लेतीं हैं वही खुशियाँ जमाने की
अगर सच है, तो वो सच है ,कभी कह भी दिया कोई
जरूरत क्या पड़ी थी आपको यूँ तिलमिलाने की
यक़ीं हो तो यक़ीं रखना नहीं तो बेयक़ीनी रख
तेरी आदत गलत लगती है मुझको, आजमाने की
अँधेरा इस क़दर हावी न हो पाता किसी आंगन
रही होती अगर चाहत दिये हर घर जलाने की
उदासी रोज़ अपना काम करती है बिला नागा
मगर आखों को आदत पड़ गई है मुस्कुराने की
अभी आवाज़ मद्धम है , ज़रा ऊँचे सुरों में रो
अभी आवाज़ आती है महज़ नक्कार ख़ाने की
मुझे गद्दारों से इस देश के इतना ही कहना है
जगह मुश्किल पड़ेगी खोजना कल सर छिपाने की
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
शेर दर शेर दाद कबूले आदरणीय गिरिराज भंडारी जी!
आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
आदरणीय हर्श भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय रवि शुक्ला भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका ह्र्दय से आभारी हूँ ।
आदरणीय गिरिराज भाई साब ..इस ग़ज़ल के सभी शेर मुझे पसंद आये ..इस रचना के प्रस्तुति पर आपको तहे दिल बधाई सादर
आ० गिरिराज जी .......बहुत ही असरदार अहसास हर शेर में
यक़ीं हो तो यक़ीं रखना नहीं तो बेयक़ीनी रख
तेरी आदत गलत लगती है मुझको, आजमाने की..........वाह ..क्या कहने !!
आरणीय गिरिराज जी
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने मतला शानदार है
और हमें निजी तौर पर ये शेर बेहद पंसद आया
उदासी रोज़ अपना काम करती है बिला नागा
मगर आखों को आदत पड़ गई है मुस्कुराने की
दिली दाद कुबूल करें । सादर ।
आदरणीय कृष्णा भाई , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया । आदरणीय सपाट बयानी वाले शे र के लिये कुछ सलाह हो तो ज़रूर बतायें ।
आदरणीय सुलभ भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।
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