क्या काफिया,रदीफ़ क्या,अशआर उसके आगे,
क्या शेर,क्या मक्ता,गज़ल बेकार उसके आगे l
क्या आसमान,जुगनू,क्या चांद,क्या सितारे,
मुमकिन भला है किसका दीदार उसके आगे l
क्या गुल,कि क्या गुलिस्तां,कि क्या भला शबनम,
पतझड़ लगी है मुझको बहार उसके आगे l
ये तो अच्छा है कि वो पर्दे में रहती है,
वरना चांद भी हो जाये शर्मशार उसके आगे l
जब भीनिगाहें शोख ले गुजरी वो गलियों से,
सारा मुहल्ला पड़ गया बीमार उसके आगे l
हम भी इसी हालात के मारे हुए हैं दोस्तों,
दिल रहा है हरदफ़ा लाचार उसके आगे l
वो हकीम मुझपे आखिर क्यूं तरस खाता नहीं,
जबकि रहा हूं उम्र भर बीमार उसके आगे l
उसको हाल-ए-दिल सुनाना चाहता हूं "सागर",
पर सोचता हूं कैसे हो इजहार उसके आगे ll
मौलिक एवं अप्रकाशित l
-इंजी.आनन्द सागर पान्डेय
Comment
अच्छी गजल हुई है ,भाई जी ,आ. मिथिलेश वामनकर सर की बातों पर गौर करें |
आदरणीय इंजी.आनन्द सागर पान्डेय जी,
विनम्र निवेदन है कि ग़ज़ल की बह्र लिख देंगे तो पाठकों को ग़ज़ल का लुत्फ़ लेना सहज हो जाएगा और प्रतिक्रिया भी दे सकेंगे. साथ ही मंच की परिपाटी रही है कि ग़ज़ल की बह्र या वज्न अवश्य लिखा जाता है जिसे अनुशासन की सीमा तक महत्त्व दिया जाता है. सादर
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