सीले हुए ,पुराने अधखुले तुडेमुडे गत्ते के डिब्बों में बन्द मोमबत्तियाों को दुकानदार ने झींकते हुए बार निकाला और मन ही मन जाने क्या-क्या खुदबखुद बडबडाने लगा । उसे ऐसे परेशान होता देख खुले डब्बे के मुँह से झाँककर एक मोमबत्ती बोली,'बेचारा!' फटाक से दूसरी बोली,'क्यों तुम्हें अपने ऊपर तरस नहीं आता ! कभी सोचा भी है कि कितने साल हो गए हमें इस मौसम में बाहर आते और मौसम खत्म होने पर बिना बिके अन्दर जाते।' नहीं याद वे दिन जब हमारी ज़रूरत बहुत थी, शान बहुत थी। हर दिन हमारा प्रयोग हुआ करता था और हम कभी किसी बच्चे के गृहकार्य में मदद करती थीं तो कभी किसी को खाना खाने में ,कभी किसी को अंधेरे में चीज़ ढूंढने में और तभी एक तीसरी मोमबत्ती खिलखिला कर बोली ,'कभी कभी तो किसी को शौचालय तक...' 'कुछ शर्म करो!' इतने में ही एक भारी भरकम सी मोमबत्ती ने उसे डाँटते हुए कहा ! 'मगर आपके तो आज भी दिन हैं मौसी !कोई ना कोई खरीद ही लेता है आज भी।' हमारी हालत तो पस्त है कुछ ही साल पुरानी बात तो है कितनी रौनक किया करती थीं हम दिवाली पर गोवर्धन पर, और, "बच्चों के पटाखे कब पूरे हुए हमारे बिना" किसी ने बीच से सुर साधते प्लास्टिक के अन्दर से कहा। "और नहीं तो क्या घर के कोने कोने में हम ही तो उजास फैलाती थीं। कभी - कभी तो प्रेयसी के रूप को चमकाने में भी हमारा ही हाथ होता था", एक ने अपने एक ही तार में पिरोए कई हिस्सों को संभालते हुए कहा । एक और सिसकते आह भरते बोली,"आज तो हमारी ज़रूरत ही नहीं है किसी को भी ।" तभी प्लास्टिक की शैया में अभी तक चुपचाप पड़ी उन सबकी बातें सुनती एक लम्बी सी सफेद मोमबत्ती जिस पर समय ने पीलापन चढ़ा दिया था आक्रोश से बोली," होती है ना आज भी हमारी आवश्यकता,
किसी अबला पर घोर अत्याचार होता है तब,किसी देश में प्राकृतिक प्रकोप होता है तब , कहीं आतंकवादी हमला होता है तब या किसी अच्छे व्यक्ति का परलोक गमन हो तब" और लगभग चीखते हुए फिर बोली,"पता नहीं किसने व क्यों ये रवायत बनाई ?" और पलट कर फिर सबसे चिल्ला कर बोली ,"अगर हम जैसी बनना चाहती हो तो जाओ , फिर मोम बनो ,सफेदा चढाओ और बन जाओ हम जैसी तुम्हारा भी कुछ तो प्रयोग होगा और एसा कह वह फूट-फूट कर रोने लगी।"
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अप्रकाशित व मौलिक
Comment
आदरणीया ममता जी, मैं प्रस्तुत रचना में और कसावट की बात कह रहा था. अभी ये लघुकथा नहीं बल्कि किस्सागोई अधिक हो गई है. इसे और कसावट दी जाए तो बढ़िया लघुकथा निकल कर आएगी. जैसे-
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पुराने गत्ते के डिब्बे में बन्द मोमबत्तियों को दुकानदार ने खीझते हुए निकालाकर बड़बड़ाने लगा तो उसे परेशान होता देख डिब्बे की मोमबत्तियों में सरगोशियाँ होने लगी।
“बेचारा....”
“क्यों तुम्हें अपने ऊपर तरस नहीं आता? कभी सोचा भी है कि कितने साल हो गए हमें इस मौसम में बाहर आते और मौसम खत्म होने पर बिना बिके अन्दर जाते"
“कभी हमारी भी शान थी कितने घरों में खाना बनाने से खिलाने तक साथ दिया, कितने ही बच्चों का होमवर्क कराया. कितनी चीजें खोजने में मदद की....कभी कभी तो किसी को शौचालय तक.......”
“कुछ शर्म करो...” - इतने में ही एक भारी भरकम सी सफ़ेद मोमबत्ती ने उसे डाँटते हुए कहा।
“मगर मौसी, आपको आज भी कोई न कोई खरीद ही लेता है... हालत तो हमारी पस्त है. कुछ ही साल पुरानी बात तो है हम त्योहारों की रौनक हुआ करती थीं”
"सही कहा लेकिन आज तो हमारी ज़रूरत ही नहीं है किसी को भी।"
रंगीन मोमबत्तियों की बातें सुनकर भारी भरकम सी सफ़ेद मोमबत्ती का आक्रोश बढ़ गया था।
"होती है न आज भी जरुरत....तब, जब किसी अबला का बलात्कार हो..... आतंकवादी हमला मासूम मारे जाए .... कोई भला व्यक्ति का मर जाए.......पता नहीं किसने ये रिवायत बनाई?"
“मगर मौसी .... “
"मगर क्या ?....अगर हम जैसी बनना चाहती हो तो जाओ, फिर से मोम बनो ,सफेदा चढ़ाओ और बन जाओ हम जैसी...”
और वह फूट-फूट कर रोने लगी।
सच कहा मिथिलेश जी ने बेहतरीन लघु कथा बन सकती है प्रभावशाली पंच लाइन के साथ | आपको इस कथानक व् भाव के लिए बहुत बहुत बधाई ममता जी | लघु कथा के शिल्प की जानकारी ओबिओ के समूह में ही मिल जायेगी --http://www.openbooksonline.com/group/laghukatha
आदरणीय ममता जी, कथानक बढ़िया है किन्तु रचना कसावट की कमी से लघुकथा होते होते रह गई. इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आपको.
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