2122 2122 212
आप सीमायें अगर लांघें नहीं
बाड़ हम भी आपकी फांदें नहीं
वो समर के वास्ते तैयार हैं
हाथ मेरे आप यूँ बांधें नहीं
हक़ हलाली की कोई रोटी दिखा
भीख से जी कर तो यूँ नाचें नहीं
शेर बन के सामने आजा कभी
गीदड़ों सी पीठ पर घातें नहीं
चैन खातिर दिन तरसता रह गया
नींद वाली थीं कभी रातें नहीं
दिल पढ़ें , नज़रें पढ़ें , आँसू पढ़ें
अस्लिहा के बाब यूँ बांचें नहीं
अस्लिहा – हथियारों , बाब – अध्याय
आप इशारों को समझ के देखिये
सिर्फ मेरी उँगलियाँ देखें नहीं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय शिज्जु भाई , हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय रवि भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका ह्र्दय से आभारी हूँ ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई , हसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीया राजेश जी , गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आपकी सलाह बहुत उचित है , इन जियादा सही है । सुधार कर लूंगा ।
आदरणीय गिरिराज जी
सुन्दर ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल करें
दिल पढ़ें , नज़रें पढ़ें , आँसू पढ़ें
अस्लिहा के बाब यूँ बांचें नहीं
आप इशारों को समझ के देखिये
सिर्फ मेरी उँगलियाँ देखें नहीं
आ० भाई गिरिराज जी , इस सुन्दर गजल के लिए हार्दिक बधाई .
वो समर के वास्ते तैयार हैं
हाथ मेरे आप यूँ बांधें नहीं------एक फ़ौजी के मन के द्वन्द को चंद शब्दों में बखूबी बयां किया आपने इस शेर के लिए विशेष दाद
वाह वाह बहुत उम्दा सरहद के उसपार वालों को चेताती हुई ओजपूर्ण ग़ज़ल मजा आ गया पढके आ० गिरिराज जी दिल से बधाई लीजिये
आप इशारों को समझ के देखिये---इन इशारों ....कर लीजिये
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