"मम्मी स्कूल की नौकरी , बिट्टू को पढ़ाने के बाद रात का खाना बनाना मेरे बस की बात नहीं हैं।"
"लेकिन बहू घर का अन्य काम तो इस उम्र में भी मैं ही करती हूँ तो क्या तुम एक समय का खाना भी नहीं बना सकती ?"
"नहीं बना सकती क्योकि मैं नौकरी करती हूँ , आपकी तरह घर में नहीं बैठी रहती "
ससुरजी हस्तक्षेप करते हुए -
"बस बहुत हो गया बहू , आज से तुम अपनी गृहस्थी देखो और हम अपनी जिम्मेदारी खुद उठा लेंगे और फिर हम पराश्रित भी तो नहीं हैं ।"
मौलिक और अप्रकाशित
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सब अपना अपना कम्फर्ट देखते हैं थोड़ी सूझ बूझ के साथ ये समस्याएं हल की जा सकती हैं ये बात भी सच है की बुजुर्गावस्था में सास का किचेन में घुसे रहना मुनासिब नहीं होता वो भी आराम चाहती है जो बहु नौकरी करती हैं वो खुद इतनी थक जाती हैं की उनकी बात भी अपनी जगह सही है यदि आर्थिक रूप से संपन्न हैं तो किसी को खाना बनाने के लिए रख सकते हैं दोनों अपनी अपनी तनख्वा से इतनी मदद तो कर ही सकते हैं यदि आर्थिक स्थिति सही नहीं है तो शारीरिक रूप से काम को सब बांट कर कर सकते हैं ...किन्तु सबसे बड़ी परेशानी है की एक दुसरे को झेलना नहीं चाहते जहाँ बेटा बहु स्वतंत्रता चाहते हैं वहीँ सेल्फ डीपेंडेंट स्वाभिमानी सास ससुर भी अपनी लाइफ अपने तरीके से जीना चाहते हैं |कहानी बहुत से प्रश्नों को सामने लाती है बहुत अच्छी लगी हार्दिक बधाई आपको |
पारिवारिक कलह की सुरूवात ऐसे ही होती है , अच्छी लगी आपकी लघु कथा ! बधाई आपको ।
परिवार ही से ऐसे कई उठे सवालों और चिंतन को सरोकार करती बहुत ही बढ़िया लघुकथा. बधाई स्वीकारें आदरणीया अर्चना जी
इस लघुकथा को पढ़कर विचार आया कि खाना बनाने की उम्मीद सास और बहू से ही की जाती है, पता नहीं बेटे और ससुर के दायित्व इतने कम क्यों नियत है. सब नीयत की बात है....
बहरहाल इस सशक्त लघुकथा पर हार्दिक बधाई आपको आदरणीया अर्चना जी
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