आवरण छोड़ कर तुम चले तो गये, आभरण आज उसका उतारा गया।
आज फिर इक सुहागन अभागन हुई, उसका सिन्दूर धुल के बहाया गया।।
मयकदे से तुम्हारी लगन क्या लगी, देख ले ना गृहस्थी अगन में जली।
आचरण के असर से भले तुम गये, एक दुल्हन को बेवा बनाया गया।।
कल्पना से परे चेतना से परे, जाने संसार में कौन से तुम गये।
हे भ्रमर किस सफर पर चले तुम गये, रंग तेरे सुमन का मिटाया गया।।
कितने संताप आँखों के रस्ते बहे, कितने सपने सुलग कर भशम हो गये।
वेदना का असीमित खजाना सुनो, आज तेरे प्रियम को थमाया गया।।
वो जो मासूम चेहरे तेरे वंश हैं, इस जगत में तुम्हारे जो ये अंश हैं।
उनकी आँखों में अब उम्र भर के लिये, इक उदासी का मौसम सजाया गया।
(अपनी बड़ी साली के दुःख में आँसूओं के साथ)
मौलिक अप्रकाशित
Comment
संवेदना के सिवा क्या कहूं, समझ सकता हूँ, लेखनि में आंसू कितना बहाया गया!
जिन परिस्थितियों में इस रचना का सर्जन हुआ है वह स्पष्ट दिखता है, भाईपंकज मिश्र वात्स्यायनजी. रचना के माध्यम से दिल का दर्द जैसे बहा चला आ रहा है. यह मंच भी आपकी वेदनाको समझता है. यह भी स्पष्ट हो रहा है कि आपकी रिश्तेदारी में जो कुछ हुआ है वह शराब की बोतल से निकले काल के कारण ही हुआ है. आपके संवेदनशील हृदय ने जिस दर्द को शाब्दिक किया है, उस पर शुभकामनाएँ या बधाई देना असंवेदनशीलता का जघन्य पर्याय होगा. लेकिन रचनाकर्म पर कुछ कहना साहित्यकर्म का भाग है. सर्वोपरि, संभावनापूरित रचनाओं पर सार्थक बातें कहना पाठक का एक दायित्व भी है.
आपकी इस ग़ज़लनुमा की सभी पंक्तियाँ (मिसरे) अनायास या सायास फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन यानी फ़ाइलुन की आठ आवृतियों के वज़न में है.
आपने इसे निभाया भी है. यह एक श्लाघनीय प्रयास है.
अन्य बातें आप अवश्य सीख जायेंगे, बशर्ते आप मंच पर उपलब्ध ग़ज़ल पर लेख पढ़ना शुरू करें.
सधन्यवाद
आदरणीय शशि भंसाली जी सादर अभिवादन और हार्दिक आभार
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