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प्रश्न- "आखिर ये ग़ज़ल क्यों नहीं है"?
उत्तर - ये ग़ज़ल नहीं है क्योकिं इस प्रस्तुति में ग़ज़ल विधा का कोई भी तत्व नहीं है. वे तत्व है-
1. काफिया- मतले में पहला मिसरा आन काफिया का है दूसरा आर काफिया का इसलिए आरमान और अशआर में गलत काफिया निर्धारित है. उसके बाद गुमान, चैन, नींद, इश्क जैसे शब्द. ये ग़ज़ल तो क्या तुकांत कविता भी नहीं है.
2. बह्र- किसी पद्य रचना का ग़ज़ल होने के लिए काफिया सहित बह्र में होना आवश्यक है. आपने बह्र-ए-कामिल की किसी ग़ज़ल को सुनकर उसकी धुन पर लिखने का प्रयास किया है और फिर उसे लिखे शब्दों पर आधारित वज्न में ढाल दिया है.
अतः ये रचना तुकांत भी नहीं है ग़ज़ल होना तो बहुत दूर की बात है.
सादर
आदरणीय मिथिलेश सर प्रथम तो क्षमा प्रार्थना।
जहाँ तक सुझावों पर ध्यान न देने का मामला है; आरोप मिथ्या है; कई रचनाओं में जिन कमियों की ओर ध्यान दिलाया गया है; उन पर मैंने संशोधन किया है। अब क्या करूँ विद्यार्थी ही कमजोर हूँ; ओबीओ की कक्षा में लिखे सिद्धांतों को समझ पाने में दिक्कत सी होती है; जब कुछ समझ लेता हूँ तो कोई नयी रचना पोस्ट करके उसमें प्रतिक्रियाओं के आधार पर संसोधन कर लेता हूँ।
चित्रकार की रचना और उसपर लगाये गए चिन्हों ली कथा याद आ गयी; यदि रचनाओं में व्याप्त दोषों को सीधे सीधे बताया जाए तो कौन है जो सुधार नहीं करेगा। कुछ तेज़ विद्यार्थी होते हैं जो खुद की रचना में थ्योरी पढ़ कर सुधार कर लेते हैं लेकिन मेरे साथ दिक्कत है।
आप सबसे विनम्र निवेदन है कि मेरी शंका का समाधान किया जाये कि "आखिर ये ग़ज़ल क्यों नहीं है"?
आदरणीय मिथिलेशभाईजी,
नये सदस्यों को कितना प्रश्रय दिया जाता है इसे हम प्रधान सम्पादक के नेतृत्व में कितना समझते हैं इस पर अब कितना कहा जाये ? सदस्यता के शुरुआती दौर में कई बार स्तरहीन रचनाओं को मात्र इस कारण स्थान मिलता है कि यथासम्भव टिप्पणियाँ मिलने पर जागरुक रचनाकार सदिश होता जायेगा. आप विश्वास करें, मैं इन पंकज महोदय को एक शुरु से माइन्यूटली देख रहा हूँ. उनका तखल्लुस भी कारण हो सकता है. भले ही टिप्पणी किया होऊँ या नहीं. लेकिन एक सीमा के बाद उनकी लापरवाही को डपट मिलनी ही थी. वे इसे समझें तो ठीक, अन्यथा अनावश्यक ’वाहवाहियों’ और तथाकथित सिद्धांतों और प्रयोगों के लिए अन्य मंच हैं. क्यों यहाँ के पाठकों का समय ख़राब करना ? क्योंकि ऐसे ’स्टाइल’ में, जैसा उन्होंने साझा किया है, ग़ज़ल लेखन होना संभव होता, सभी के सभी टाइपिस्ट डेढ़ दिन में गज़लकार हो जायें.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय सौरभ सर, सर्वप्रथम तो मैं क्षमा चाहता हूँ कि प्रस्तुति को केवल सरसरी तौर पर देखकर टिप्पणी कर दी है. आदरणीय पंकज जी की इस प्रस्तुति को ग़ज़ल मानकर टिप्पणी नहीं की है, केवल प्रस्तुति के भावों का समर्थन किया है. यह प्रस्तुति ग़ज़ल टैग के साथ प्रस्तुत हुई है यह देख नहीं पाया. निसंदेह यह प्रस्तुति ग़ज़ल तो है ही नहीं. यह एक तुकांत कविता भी नहीं है. यह एक मीटर में शब्दों को बिठाने का प्रयास है जिसे अतुकांत प्रस्तुति ही माना जा सकता है.
जिन प्रस्तुतियों में विधा की पहचान नहीं हो पाती, ऐसी प्रस्तुतियों में 'बढ़िया प्रस्तुति' लिख कर प्रतिक्रिया व्यक्त कर देता हूँ. यदि विधा स्पष्ट हो और प्रस्तुति विधाजन्य हो तो उस विधा विशेष के साथ प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करता हूँ. यथा बढ़िया गीत, बढ़िया ग़ज़ल, बढ़िया दोहावली, बढ़िया अतुकांत या बढ़िया छंद.
आदरणीय पंकज जी इस मंच पर नए सदस्य है. आपने एक माह में लगभग 16 प्रस्तुतियों को पोस्ट किया है जिनमें आरंभिक प्रस्तुतियों पर मेरे द्वारा और मंच के गुनीजनों द्वारा विधाजन्य इस्लाह दी गई है. गुनीजनों ने ग़ज़ल विषयक ओबीओ पर उपलब्ध आलेख भी पढने का सुझाव दिया है. आदरणीय पंकज जी उन सुझाओं पर आभार जरुर व्यक्त करते है किन्तु अपनी प्रस्तुति के दोषों को दूर करने का वैसा प्रयास नहीं करते जैसा किया जाना चाहिए. संभवतः यही कारण है कि ऐसी प्रस्तुतियों पर ज्यादा समय देने की बजाय बहुत बढ़िया कहकर आगे बढ़ जाया जाए. यद्यपि यह मंच की गरिमा के लिए उचित नहीं है लेकिन सही कहने पर वैसे ही बेतुके जवाब मिलते है जैसे आपकी सीख और संकेत पर पंकज जी ने दिए है.
आदरणीय पंकज जी की प्रस्तुतियों पर मंच के सभी गुनीजनों ने इस्लाह दी है किन्तु अपेक्षित सुधार न दिखने की स्थिति में 'बहुत बढ़िया' के अलावा और कुछ बचता ही नहीं कहने को. इस्लाह भी वहीँ दी जा सकती है जब उसे पाने वाला उसे स्वीकार कर आत्मसात करें. सीखने सिखाने की परंपरा का निर्वहन सीखने वाले की क्षमता और योग्यता पर निर्भर करता है. खैर.
रही बात इस प्रस्तुति की तो मीटर में अपने भावों को ढालने का बढ़िया प्रयास हुआ है केवल इसलिए 'बढ़िया प्रस्तुति. है. यह ग़ज़ल है ही नहीं. इसलिए इसे ग़ज़ल समझा भी नहीं और ग़ज़ल टैग से पोस्ट हुई है इस बात पर ध्यान नहीं गया.
जहाँ तक बात आदरणीय पंकज जी की है तो उनकी टिप्पणी की है तो उन्हें आपकी बात और संकेत को समझने का प्रयास करना था. जिस मार्गदर्शन से लाभ लिया जा सकता था उस बात के मर्म तक पहुंचना यथेष्ट था.
आपने सही कहा सर कि ’सीखने-सिखाने’ का मतलब मंच पर बहुत गंभीर रहा है. इस बात के सापेक्ष अपनी चलताऊ टिप्पणी के लिए क्षमा चाहता हूँ. यह अवश्य है कि नए रचनाकारों के उत्साहवर्धन के लिए उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं दी जानी चाहिए किन्तु उतना ही आवश्यक यह भी है कि ऐसी टिप्पणियों को रचनाकार अपनी अनगढ़ प्रस्तुतियों की वाहवाही न समझे.
सादर
आदरणीय मिथिलेशजी एवं आदरणीय धर्मेन्द्रजी,
प्रस्तुत हुई इस ग़ज़ल पर आप टिप्पणीयों के माध्यम से क्या कहना चाहते हैं ? इस नये रचनाकार को जो संदेश गया है वो बहुत सार्थक प्रतीत नहीं हुआ है.
इस गज़ल का काफ़िया क्या है, आदरणीय मिथिलेश भाई ? फिर ऐसी ’वाह-वाही’ का क्या लाभ, यदि न बहर कायदे की, न काफ़िया जगह पर ? उस पर पूछने पर इन साहब की लम्बी-लम्बी बातें कि ये एक बार में सीधे प्रैक्टिकल पर उतर आते हैं !
सोचियेगा.
आपको भी मालूम है कि ’सीखने-सिखाने’ का मतलब मंच पर कितना गंभीर रहा है.
मेरे बहर सम्बन्धी प्रश्न का आपने क्या उत्तर दिया है, उसे ज़रा फिर से देख जाइये. मेरे उक्त प्रश्न का कुछ मतलब था. कोई व्यक्ति जो सीखने की बात कर रहा है, क्या इतना लापरवाह भी हो सकता है ?
कुछ लोगों के जो आप ’अच्छे’ कोमेण्ट पाते हैं, क्या उन्हें मालूम भी है कि आप सीधे एडिट बॉक्स से वह भी एक बार में ’ग़ज़ल’ लिख कर पोस्ट कर देते हैं ? मुझे नहीं लगता. क्योंकि, वाकई अगर उन ’लोगों’ को यह बात मालूम हो जाये तो कोई ऐसे प्रयास पर अपना समय बरबाद न करेगा. समझ गये भाई साहब ?
जहाँ तक आपके कुछ समझने या न समझने का प्रश्न है तो कोई प्रैक्टिकल बिना समुचित थ्योरी के ’समय-काटू’ प्रक्रिया भी हो सकती है या होती ही है. ऐसी प्रक्रिया पर समय कोई भलमानस क्यों दे ?
इसके आगे आप क्या सोचते हैं और क्यों सोचते हैं यह आपका व्यक्तिगत मामला है.
पुनः कह रहा हूँ, पहले आप ’थ्योरी’ पढ़ लीजिये. तब ’ग़ज़लें’ कहना शुरु कीजिये.
सर्वोपरि, मैं अमर्यादित भाषा का प्रयोग नहीं करता. मेरे कहे का आशय समझिये फिर कुछ बोलियेगा.
शुभेच्छाएँ
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