ओस के शबनमी कतरों में …
सर्द सुबह
कोहरे का कहर
सिकुड़ते जज़्बातों की तरह ठिठुरती
सहमी सी सहर
ओस की शबनम में भीगी
चिनार के पेड़ों हिलाती
आफ़ताब की किरणों को छू कर गुजरती
हसीन वादियों की बादे-सबा
रूह को यादों के लिबास में लपेट
जिस्म को बैचैन कर जाती है
तुम आज भी मुझे
धुंध में गुम होती पगडंडी पर
खड़ी नज़र आती हो
मैं बेबस सा
अपने तसव्वुर में
हर शब-ओ-सहर बिताये
हसीन लम्हों से
गुफ़्तगू करता रहता हूँ
हर जलते चराग में
अपनी तिश्नगी को जवां पाता हूँ
आज भी
बिस्तर पर बिखरे
गज़रे के फूलों की वो महक
तेरी करीबी का अहसास देती है
मेरे बदन को
तेरे साँसों की छुअन
मेरे वुज़ूद को सांस देती है
अचानक कोई बेरहम लम्हा
मेरा सोया ज़ख़्म कुरेद देता है
मेरी मुहब्बत को
बेवफाई में समेट लेता है
बेबसी के आलम में
ज़मीन पर बिछी ओस की चादर पर
तेरी चाहत को अपने ज़हन में ज़िंदा रखे
दूर तक नंगे पाँव चला जाता हूँ
इक साये सी
तू धुंध में नज़र आती है
फिर पगडंडी में कहीं खो जाती है
मैं तन्हा रह जाता हूँ
आँखों की नमी छुपाता हूँ
ओस के शबनमी कतरों में
तेरे अक्स पे मुस्कुराता हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
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आदरणीय shree suneel जी रचना पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति का हार्दिक आभार । आदरणीय आपका सुझाव स्वागतेय है इसे हम 'ओस की बूंदों में ' कर सकते है। बहरहाल आपके सुझाव का हार्दिक आभार।
आदरणीय amod bindouri जी रचना पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति का हार्दिक आभार
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