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कीचड़ .....
सड़क पर फैले हुए कीचड से
एक कार के गुजरने से
एक भिखारन के बदन पर
सारा कीचड फ़ैल गया
अपनी फटी हुई साड़ी से कीचड़ पौंछते हुए
उसने अपने मन की भंडास निकालते हुए कहा
अमीरजादे गाड़ी से कीचड उछालते हैं
और पलट के भी नहीं देखते
इन्हें भूख से बिलबिलाते हुए
पेट को भरने के लिए रक्खा
भीख का कटोरा नजर नही आता
बस फ़टे कपड़ों से झांकता
बदन नज़र आता है
मेहरबानी पेट पर नहीं
बस बदन पर होती है
वो खुद पर गिरे कीचड़ को
साफ़ करने का असफल प्रयास करती रही
तभी एक वृद्ध ने उसे
बेटी कह कर पुकारा
मानो इस एक शब्द में
सारा जहाँ का प्यार
उमड़ आया हो
बेटी ! ये रुमाल लो
और अपने मुंह पर
गिरे कीचड़ को साफ़ कर लो
बाबा इस रुमाल से
ये कीचड़ तो मिट जाएगा
मगर उस कीचड़ को कैसे साफ़ करूं
जो लोगों की नजरों में है
बाबा, मैं बेटी के सम्बोधन से
सिहर जाती हूँ
न जाने किसने इस शब्द को
कलंकित कर डाला
फुटपाथ पर फैंक
स्वयम को पवित्र कर डाला
खुले आसमान के नीचे
धरती की गोद में
मैं न जाने कब तक रोती रही
कंकडों के बिछोने पर सोती रही
वक्त के क्रूर हाथों में
तिल तिल करके बढती रही
बचपन ने कब नजरें फेरी
और जवानी झुर्रियों से ढक गयी
कुछ खबर ही न हुई
हर नजर में
बदन की भूख से थक गई हूँ
न जाने मैं किस वहशी की
नाजायज पहचान हूँ
बाबा इस रुमाल से मैं
मुंह पर गिरे कीचड को तो साफ़ कर लूंगी
लेकिन सभ्य समाज के
असभय कीचड को आखिर
किस रुमाल से साफ़ कर पाऊँगी … ?

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 596

Comment

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Comment by Sushil Sarna on October 7, 2015 at 2:54pm

आदरणीय Jayprakash Mishra जी रचना पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति का दिल से शुक्रिया।

Comment by Jayprakash Mishra on October 6, 2015 at 7:08pm
Adarniya Suneel Sarna ji ,Apaki rschana sochane par vivash karati hai,Badhaai
Comment by Sushil Sarna on September 24, 2015 at 2:27pm

आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी आपका कथन सही है। भविष्य में इसकी पुनरावृति न हो इसका बंदा ख्याल रखेगा। आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया का शुक्रिया। 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 23, 2015 at 8:26pm

सरना जी  मिथिलेश सर ने सही कहा  कविता कुछ कथात्मक हो गयी है  . आप योग्य कवि है आपको क्या बताना .

Comment by Sushil Sarna on September 22, 2015 at 4:10pm

आदरणीय मिथिलेश जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया एवं सुझाव का दिल से शुक्रिया। कभी कभी रचनाकार सृजन करते हुए भावनाओं में बह जाता है और रचना को छोटा करने में हिचकिचाता है कि कहीं कोई भाव रचना छोटा करने में कट न जाए। बाकी मैं आपकी बात से इतफ़ाक रखता हूँ और भविष्य में कोशिश करूंगा की रचना की लम्बाई से मूल भाव आहत न हो। आपकी इस आत्मीयता का दिल से शुक्रिया। कृपया स्नेह बनाये रखें। मैं इसी पोस्ट को आदरणीय योगराज सर के निर्देश पर पुनः सुधार के बाद  पोस्ट कर रहा हूँ जो शायद आपको संतुष्ट करेगी। सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 22, 2015 at 3:41pm

आदरणीय सुशील सरना सर, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. प्रस्तुति तनिक इतिवृत्तात्मक हो गई है, कथ्य का विस्तार इसके मर्म की तुलना में अधिक है. इसे और साधा जाकर सुगढ़ किया जा सकता है. सादर 

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