जाने क्या सोच के उसने ये हिमाक़त की है
हो के दरिया जो समंदर से अदावत की है
खींच लायी हे तेरे दर पे ज़रुरत मुझको
हो के मजबूर उसूलों से बग़ावत की है
हमने ख़ारों पे बिछाया हे बिछोना अपना
हमने तलवारों के साये में इबादत की है
अच्छे हमसाये की तालीम मिली हे हमको
हमने जाँ दे के पडोसी की हिफाज़त की है
आज आमाल ही पस्ती का सबब हैं वरना
हमने हर दौर में दुनिया पे हुकूमत की है
दम मेरा कूच -ए -सरकार जाकर निकले
इस तमन्ना के सिवा कुछ भी न हसरत की है
(मौलिक एवम अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय हसरत जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है आपने. गुनगुनाकर दिल खुश हो गया. इतनी आहंगखेज बह्र है कि बस झूम जाता हूँ. अब ऐसी सुरीली बह्र या उसका वज्न तो लिखना ही चाहिए न? यही मंच का अनुशासन है और पाठक भी ग़ज़ल का सही लुत्फ़ ले पाता है.
निवेदन है कृपया बह्र/वज्न का उल्लेख करें. इबादद को इबादत कर लीजिये .. सादर
बह्र लिक्खी नहीं फिर यार ग़ज़ल क्या समझे
मंच का मान है रखना तो हिदायत की है
आदरणीय श्रीफ़ अहमद जी पहली बार आपके कलाम से रू ब रू हुए । सुन्दर ग़ज़ल कही है शेर दर शेर दाद कुबूल करें ग़ज़ल से पहले उसकी बह्र भी लिख दें तो उसे समझने में आसानी रहेगी । भाव पूर्ण शेर हुए है दिली मुबारक बाद कुबूल करें ।
आ० हसरत जी . हम आपकी पहली गजल से मुखातिब हुए . बड़ी ही पुर कशिश गजल कही आपने
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