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शिज्जू भाई- जब लिया इक दूसरे से हमने रुख़सत ले गये ---यह पंक्ति व्याकरण सम्मत नहीं जान पड़ती . हमारे भ्रम को आप ही दूर करें . बाकी गजल सुपर्ब .
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है..
आदरणीय शिज्जु भाई बढ़िया ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद हाज़िर है-
जब लिया इक दूसरे से हमने रुख़सत ले गये.................. इस मिसरे में कुछ कमी लग रही है
अपने अपने हिस्से की हम लोग किस्मत ले गये
निस्बतों की अहमियत जो जानते थे लोग वो
याद अपनी दे गये हमसे मुहब्बत ले गये................ बढ़िया
ताक़ पर रिश्तों को रख जज़्बात बेच आये कहीं
आज तन्हा रह गये जो सिर्फ़ दौलत ले गये............... शानदार
अपनी वो मस्रूफ़ियत से एक लम्हा छोड़कर
पास बैठे दो घड़ी क्या मेरी फुरसत ले गये................ वाह वाह
वो हसद का एक शो’ला मेरे दिलमें डालकर
काम अपना कर दिया मेरी वजाहत ले गये............ सानी में कुछ गुंजाइश है क्या? बाकी शेर बढ़िया है.
रोककर राहें, मुहब्बत का मुझे दे वास्ता
कुछ न उनसे हो सका तो मेरी हसरत ले गये............. बढ़िया
दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.
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