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कितने ही यहाँ जिनके घर अपने नहीं होते
क्या होता खुदा जग में गर अपने नहीं होते
हर जुल्म सहा उसने लेकिन न कहा कुछ भी
पाले हुए पंछी के पर अपने नहीं होते
था जंगली वो हाथी देता ही कुचल हमको
गर पास धनुष अपना शर अपने नहीं होते
बिगड़े न अगर होते बेटे तो यकीनन ही
रातों में भटकते क्यूँ घर अपने नहीं होते
चोरी से कहाँ बचते चोरों से बचाते क्या
मजबूत घरों के गर दर अपने नहीं होते
इंसा को ठिठुरता यूं देखा तो चिडी बोली
मर जाते कभी के गर फर अपने नहीं होते
हाथों में तेरे प्याले आँखों में उदासी क्यूँ
ऐसे में गले साकी तर अपने नहीं होते
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशुतोष जी बहुत बढ़िया तरही ग़ज़ल हुई है मुशायरे में शिरकत नहीं हो पाई शायद नहीं तो और भी विस्तृत दाद मिलती सबसे
इंसा को ठिठुरता यूं देखा तो चिडी बोली
मर जाते कभी के गर फर अपने नहीं होते क्या बात है आने वाली ठंड का एहसास किस नये तरीके से आपने किया है नया बिंब है बधाई आपको इसके लिये
हाथों में तेरे प्याले आँखों में उदासी क्यूँ
ऐसे में गले साकी तर अपने नहीं होते आखिरी शेर तो बहुत ही खूब हुआ है क्या बात है आशुतोष जी ऐसे में किसके गले तर होंगे । दिली दाद कुबूल करें । इस बार मुशायरे में हाजिर जरूर होइयेगा ।
आदरणीय मिथिलेश जी..रचना पर आपकी प्रतिक्रिया से बड़ा हौसला मिलता है ..बस यूं ही सहयोग मिलता रहे इसी कामना के साथ सादर
आदरणीय शिज्जू जी ..आपकी प्रतिक्रिया से मनोबल बढ़ा है ..आपके साथ मैंने इस मंच पर ग़ज़ल का ये सफ़र शुरू किया था..बहुत मार्गदर्शन मिला आपसे ..इस सफ़र पर आपसे यूं ही हौसला मिलता रहे इसी कामना के साथ सादर
आदरणीय मनोज जी रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से धन्यवाद सादर
आदरणीय आशुतोष जी बहुत बढ़िया तरही ग़ज़ल हुई है दाद हाज़िर है
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