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ये लॉन एक खफ़ा-सी किताब है कोई---(ग़ज़ल)--- मिथिलेश वामनकर

1212 - 1122 - 1212 – 112

 

न ओंस है, न शफक है, न ताब है कोई

ये लॉन एक खफ़ा-सी किताब है कोई

 

झुका झुका सा मुझे देख, सब यही कहते  

वो आदमी तो नहीं मेहराब है कोई

 

हमें ये चीज मुहब्बत है क्या, नहीं मालूम 

चमन नहीं तो ये खानाखराब है कोई

 

तुम्हें ही देख के दिल को सुकूं ये मिलता है

हमारे प्यार का लब्बोलुआब है कोई

 

नज़र-नज़र की अदावत ये आपकी साहिब

पुराना आप से अपना हिसाब है कोई

 

रुमाल धूप की खुर्शीद बाग़ में लाया

यहाँ जमीन पे रोता गुलाब है कोई

 

दरो-दिवार है दहशत में, चीखता आँगन

हमारे घर में ही लगता कसाब है कोई

 

जरा ढुलक जो गए, होश गुम हुआ मेरा

नहीं ये आप के आँसू, शराब है कोई 

 

फिजूल है न कहें और मेरी बातों पे

जरा सा गौर करे जो, जनाब है कोई?

 

कि रेगज़ार नफस के शज़र नहीं फलते

जो शाख पे है वो टूटा सा ख़ाब है कोई

 

वो सिर्फ इसलिए महफ़िल में कुछ नहीं कहते

हर इक सुलूक पे हाज़िर जवाब है कोई

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by Sushil Sarna on November 6, 2015 at 1:29pm

गज़ब के भाव लिए न केवल इस मतले के लिए बल्कि पूरी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय मिथिलेश जी भाई साहिब। 

Comment by Ravi Shukla on November 6, 2015 at 1:07pm

आदरणीय मिथिलेश जी  खूबसूरत मतले के बाद एक बार तो आगे पढना ही रूक गया मतले के लिये पहले अलग से बधाई स्‍वीकार करें

सभी शेर अपनी कहन के साथ न्‍याय कर रहे हे आदरणीय गिरिराज जी की बात से हम भी सहमत है कसाब वाले शेर में अर्थ बदल रहा था । वैसे समय के साथ साथ काफिया की उपलब्‍धि बढती जाती है पहले किसने सोचा था कि कसाब भी एक काफिया हो सकता है । सुन्‍दर उपयोग शब्‍द का बधाई

रुमाल धूप की खुर्शीद बाग़ में लाया

यहाँ जमीन पे रोता गुलाब है कोई इस शेर का उला थोडा असहज लग रहा है अर्द्ध विराम लगा कर पढने से अर्थ तक पंहुचा जा रहा है धूप जैसी समग्र और विशाल वितान वाली चीज के लिये रुमाल की छोटी सा उपमा हालांकि रोते हुए गुलाब के आसू के लिये एक रुमाल पर्याप्‍त है किन्‍तु ग़ज़ल में जिस तरह से शेर कहे हे आपने उस लिहाज से इस शेर पर इतनी बात कह दी है । बस अपनी बात साझा करने के लिये इसे शेर पर कोई इस्‍लाह की तरह से न लेवें ।

वो सिर्फ इसलिए महफ़िल में कुछ नहीं कहते

हर इक सुलूक पे हाज़िर जवाब है कोई ..... पिछली ग़ज़ल पर भी आप मौन से अपनी बात खत्‍म कर रहे थे यहा भी अपने मौन के लिये, सानी में एक तर्क के साथ हाजिर हैं । क्‍या बात है मुखर होईये आदरणीय  :-)   मंच को आपकी सतत आवश्‍कता है ।

बहरहाल ग़ज़ल के लिये बधाई बनती है और दिल से हाजिर है ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 12:08pm

तुम्हें ही देख के दिल को यक़ीं ये होता है  

हमारे प्यार का लब्बोलुआब है कोई

दरो-दिवार है दहशत में, चीखता आँगन

हमारे घर में घुसा फिर कसाब है कोई


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 12:06pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 12:05pm

आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन, मार्गदर्शन, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पाकर दिल खुश हो गया. आपने सही कहा //तुम्हें ही देख के दिल को यक़ीं ये होता है// मिसरे में ये होने से सानी और स्पष्ट हो रहा है. कसाब वाले शेर में वाकई जो कहना चाह रहा था उससे अलग ध्वन्यार्थ हो रहा था मिसरे का. इस मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार. आपके मार्गदर्शन अनुसार संशोधन करता हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 12:01pm

आदरणीय पंकज जी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 6, 2015 at 10:46am

दरो-दिवार है दहशत में, चीखता आँगन

हमारे घर में ही लगता कसाब है कोई

क्या खूब कहा आ० मिथिलेश भाई ,इस सुन्दर गज़लके लिए हार्दिक बधाई l


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Comment by गिरिराज भंडारी on November 6, 2015 at 10:40am

आदरणीय मिथिलेश भाई , लाजवाब मतला से शुरू गज़ल बहुत ही खूब सूरत हुई है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥
तुम्हें ही देख के दिल को यक़ीं ये होता है   -- ये कैसा रहेगा

हमारे प्यार का लब्बोलुआब है कोई

और -

दरो-दिवार है दहशत में, चीखता आँगन

हमारे घर में ही लगता कसाब है कोई     ---  इस शे र का अर्थ जो मै लगा पा रहा हूँ वो कसाब के पक्ष मे भी जाता लग रहा है --

दरो-दिवार क्यूँ दहशत में, चीखता आँगन

हमारे घर में घुसा फिर कसाब है कोई   ---   मेरे ख़याल से ऐसा कहें तो सही हो -- सोचियेगा , ज़रूरी नहीं है ॥



 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 6, 2015 at 8:23am
जरा ढुलक जो गए, होश गुम हुआ मेरा
नहीं ये आप के आँसू, शराब है कोई


लाजवाब शेर;प्रेम का अव्यक्त रूप रहा है आज तक, प्रियतमा का रोना और उसके आँसूओं का नशा।


बहुत खूब

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