पौरुष ने उठाया हाथ
सहनशीलता ने
कर तो लिया बर्दाश्त
पर चेहरा विकृत हुआ
अधर काँपे
आँखे पनिआयी
झट वह चौके में चली गयी
बेटी दौड़ी-दौड़ी आयी
क्या हुआ माँ ?
कैसी आवाज आयी ?
और यह क्या तू रोती है ?
नहीं बेटी, ये लकड़ियाँ ज़रा गीली है
धुंआ बहुत देती है
आँख में गडता है, पानी निकलता है
बेटी ने कहा – ‘ माँ !
गीली लकड़ी का
तुमसे क्या सम्बन्ध है ?
माँ ने कहा ‘ हम दोनों
जलती कम
और सुलगती ज्यादा हैं I’
‘और यदि लकड़ी सूखी हो,,तो ?’
‘तो चिता बन जाती है
खुद भी जलती है
औरों को भी जलाती है’
‘तो माँ !
तुम चिता कब बनोगी ?’
(मौलिक व् अप्रकाशित )
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