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मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की--(ग़ज़ल)--मिथिलेश वामनकर

2122—1122—1122—22

मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की
मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की

रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की
सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की

एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने
बात करता है जमाने से वही नेचर की

अम्न के वासिते मंदिर तो गया श्रद्धा से
बात होंठों पे मगर सिर्फ़ वही बाबर की

आसमां का भी कहीं अंत भला होता है
ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की

ये सहर क्या है, सबा क्या है, हमें क्या मालूम
जिंदगी आज तो पीती है हवा कूलर की

हो जमाने का कोई एक मसाइल तो कहूँ
है मुसीबत तो मेरे सर पे जमाने भर की

भूल जाता हूँ जमाने के सभी ग़म यारो
एक आवाज़ जो कानों में पड़े दुख्तर की

दानवी विश्व जो देखा तो गगन बोल उठा-
फिर जरुरत है धरा को नए पाराशर की

रास्ते ये तो बता, अब तू किधर जाएगा?
ठोकरें हैं मेरे हिस्से में इधर दर-दर की

मेरे हिस्से का उजाला तो बराबर भेजो
चाँद हो, तुम तो कमाई न करो ऊपर की

मरते देखें हैं मरासिम भी, मरासिम के लिए
देख शशि तो न हुई आज तलक शेखर की

ये चकाचौंध जमाने की लगी बे-मतलब
इस दफ़ा देख के आया हूँ जिया भीतर की

अपने माज़ी के लिए आज पे रोने वालो
लौटते देखी है जलधार कभी निर्झर की


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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2015 at 1:13pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सरजी,

आपको ग़ज़ल पसंद आई, जानकार आश्वस्त हुआ हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 

Comment by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 12:57pm

मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की
मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की

वाह आदरणीय कितने पाक ख्यालों से ग़ज़ल के अशआर सजे हैं .... इस नगीने सी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी।

Comment by Shyam Narain Verma on December 8, 2015 at 11:56am
वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 11:01am

आ0 मिथिलेश भाई इस सुंदर गजल के साथ साथ परिचर्चा के लिए भी कोटि कोटि बधाई । इस गजल के सहारे बहुत कुछ नया ज्ञानवर्धन हुआ है । पुनः बधाई ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2015 at 1:28am

आदरणीय सौरभ सर, ग़ज़ल पर पुनः उपस्थित होकर मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार. आपके मार्गदर्शन अनुसार त्रुटियाँ सुधार कर संशोधित ग़ज़ल एडिट कर पोस्ट कर रहा हूँ. सादर नमन 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 7, 2015 at 11:45pm

आप बोल्ड किये हुए अश’आर को एडिट कर पोस्ट कर दें, आदरणीय मिथिलेश भाई. सोच कर बोल रहा हूँ.  आपकी प्रतिक्रिया नोटिफिकेशन में देखी थी हमने.  लेकिन पूरी ग़ज़ल पोस्ट हुई है, यह तब पता ही नहीं चला. अभी देख रहा हूँ. 

एक बात, संज्ञा के साथ ’ने’ विभक्ति आये तो बोलना क्रिया नहीं आती. इससे बचने केलिए ’गगन बोल उठा’ किया जा सकता है. बाकी, अन्य अश’आर के पोस्ट पर. 

शुभेच्छाएँ

 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 7, 2015 at 7:57pm

आपकी शायरी हमेशा अच्छी रही है . यह आपकी अपने प्रतिभा है  मेरी आपसे एक गुजारिश है  बहुत लम्बी गजल से बचें  न लम्बी जिन्दगी अच्छी होती ही न गजल . जिन्दगी बड़ी हो  गजल बड़ी हो तो  फिर मिथिलेश ही मिथिलेश . सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 7, 2015 at 4:25am

आदरणीय सौरभ सर, ग़ज़ल पर आपकी दाद पाकर खुश हुआ. रास्ते और दिवार का प्रयोग वैसे ही किया है जैसा कि आपने कहा है. ये दीवाना/दिवाना, आईना/आइना या कोई/कुई/कोइ वाला ही प्रयोग है. इस ग़ज़ल के प्रयोगात्मक काफिये वाले अशआर मैंने हटा दिए थे क्योकिं हाल ही में उस अंदाज़ की ग़ज़ल प्रस्तुत कर चुका था. इसलिए सोचा रवायती अंदाज़ वाले अशआर ही पोस्ट करता हूँ. आपने इशारा किया है तो पूरी ग़ज़ल निवेदित कर रहा हूँ-

मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की

मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की

 

रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की

सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की

 

एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने

बात करता है जमाने से वही नेचर की  

 

अम्न के वासिते मंदिर तो गया श्रद्धा से

हैं मगर लब पे वही बात मुग़ल बाबर की

 

आसमां का भी कहीं अंत भला होता है

ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की

 

ये सहर क्या है, सबा क्या है, हमें क्या मालूम

जिंदगी आज तो पीती है हवा कूलर की

 

हो जमाने का कोई एक मसाइल  तो कहूँ

है मुसीबत तो मेरे सर पे जमाने भर की

 

भूल जाता हूँ जमाने के सभी ग़म यारो

एक आवाज़ जो कानों में पड़े दुख्तर  की

 

दानवी विश्व जो देखा तो गगन ने बोला -

फिर जरुरत है धरा को नए पाराशर की

 

रास्ते ये तो बता, अब तू किधर जाएगा?

ठोकरें मेरे तो हिस्से में इधर दर-दर की

 

मेरे हिस्से का उजाला तो बराबर भेजो

सूर्य हो, तुम तो कमाई न करो ऊपर की

 

मरते देखें हैं मरासिम भी, मरासिम के लिए

देख शशि तो न हुई आज तलक शेखर की

 

ये चकाचौंध जमाने की लगी बे-मतलब

इस दफ़ा देख के आया हूँ जिया भीतर की

 

वक़्त बीता तो समझ रीत गया है यारा

लौटते देखी है जलधार कभी निर्झर की  

जो अशआर ग़ज़ल से हटाये थे उन्हें बोल्ड किया है. शायरी में ज्यादा प्रयोग करने के भी अपने खतरे हैं, संभवतः ये बात भी कभी कभी डर पैदा करती है. बस इसी कारण इन्हें पोस्ट नहीं किया था. ग़ज़ल की सराहना तथा मार्गदर्शक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर नमन 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 6, 2015 at 10:46pm

ग़ज़ल के अश’आर पर आदरणीय गिरिराज भाईजी ने बढ़िया टिप्पणी की है.  वैसे मुझे आपकी यह ग़ज़ल थोड़ी हल्की लगी. वैसे भी किसी शाइर की हर ग़ज़ल एकसार ऊँचे मेयार की हो, ऐसा होता नहीं.  मगर शाइर के तौर पर आपका नाम हटा दिया जाय तो ग़ज़ल वाकई अच्छी है. 

रास्ते का उपयोग सही है. सम्बोधन में यह सर्वथा मान्य है. दीवार का दी गिरकर दिवार हो गया है तो सही है. मेरा का मिरा इन्हीं शर्तों पर होता है. वर्ना ग़ज़ल से जो अधिक वाकिफ़ न हों और मात्र हिन्दी जानने वाले हों वे मिरा तिरा जैसे शब्दों को देख कर अक्सर चौंकते हैं. 

प्रस्तुति केलिए दाद कुबूल कीजिये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 6, 2015 at 10:29pm

संशोधित ग़ज़ल 

मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की

मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की

 

रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की

सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की

 

आसमां का भी कहीं अंत भला होता है 

ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की

 

हो जमाने का कोई एक मसाइल  तो कहूँ

है मुसीबत तो मेरे सर पे जमाने भर की

 

भूल जाता हूँ जमाने के सभी ग़म यारो

एक आवाज़ जो कानों में पड़े दुख्तर  की

 

रास्ते ये तो बता, अब तू किधर जाएगा?

ठोकरें  है मेरे हिस्से में इधर दर-दर की

 

ये चकाचौंध जमाने की लगी बे-मतलब

इस दफ़ा देख के आया हूँ जिया  भीतर की

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