' सब तैयारी हो गयी बेटा ? ' पिता ने कमरे में प्रवेश करते हुए पूछा I पीछे पीछे माँ भी थी ,छोटी -छोटी पोटलियों से लदी-फदी I बहू ये सब ठीक से रख लो ! कोने में खड़ी बहू के हाथ में पोटलियों को थमाते हुए बोली I
' जी अम्मा I '
' सब अच्छे से सहेज लेना ,कुछ छूट न जाए I नयी जगह है परेशानी होगी I '
' जी बाबूजी ! ' इतना ही बोल पाया वह I हालाँकि कहना तो ये चाहता था I ' सब कुछ तो छूट ही रहा है ,आप माँ संगी साथी .......I पर आवाज़ जैसे हलक में ही कही गुम होती लग रही थी I
कुछ पल रुक कर - मैं और आपकी बहू तो चाहते थे की आप सब भी हमारे साथ ही चलते ,यहाँ अकेले ..... ! '
'न बेटा ,अब कहाँ इस उम्र में गाँव-जवार छूट पायेगा !! तुम्हारी तो रोजी रोटी और सुनहरे भविषय की मज़बूरी है ,वरना तो क्या जाने देता ......I बोलते समय जाने क्यों वह सीधे आँखों में न देख इधर उधर देख रहे थे I लगा उनका भी गला भर आया था I
'जी I '
'अच्छा अब तुम लोग आराम करो ! तड़के ही निकलना होगा I अपना और बहू का ख़याल रखना ,और महानगर जाकर वहीँ का न हो जाना ,आते जाते रहना I अबकी माँ बोली थी I
वह माँ के गले लग रुंधे गले से बोला I
' नहीं माँ ,कभी नहीं , रोजी रोटी के लिए मज़बूरी में गाँव से पलायन कर रहा हूँ रिश्तों से नहीं I '
आँखों में संतुष्टि का भाव लिए माँ बाबूजी तो चले गए किन्तु वह कमरे के बाहर शून्य में बहुत देर तक निहारता रहा मानों माँ बाबूजी के संतुष्ट चेहरों के पीछे छिपे उस अनचाहे पलायन के दर्द को अपने ह्रदय में समाहित कर उन्हें उससे मुक्त करना चाहता हो I
मीना पाण्डेय
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय nita kasar जी ,Vijay nikore जी
मेरी कथा पर इतनी अच्छी विवेचना के लिए हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ,आपकी बात का संज्ञान अवशय लुंगी मैं I
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी ,आपकी बात का संज्ञान अवशय लुंगी मैं
अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीया मीना जी।
आदरणीया मीनाजी, आपकी प्रस्तुति का कथ्य बढिया है और इसके लिए हार्दिक बधाई. लेकिन मैं आदरणीय गोपाल नारायणजी के कहे से सहमत हूँ. पलायन वस्तुतः लघुकथा में वर्णित आसन्न विस्थापन से अलग किस्म का स्थान-परिवर्तन है, जिसमें पारिस्थिक दायित्व को जंजाल समझ उससे पीछा छुड़ा लेने का भाव हुआ करता है. ऐसा स्थान-परिवर्तन तो विदाई के समकक्ष होगा.
एक बात :
//पर आवाज़ जैसे हलक में ही कही गुम होती प्रतीत होती लग रही थी //
उपर्युक्त वाक्य ज़बरदस्ती के शब्दों से भरा हुआ है. प्रतीत होने का अर्थ ही लगना या भान करना होता है. फिर ’गुम होती प्रतीत होती लग रही थी’ किस तरह का शब्द समुच्चय है ? यह सार्थक वाक्य की कसौटी पर शुद्ध नहीं है. शुद्ध वाक्य होगा - पर आवाज़ जैसे हलक़ में ही कहीं गुम होती प्रतीत हुई .. या, ’पर आवाज़ जैसे हलक़ में ही कहीं गुम होती लग रही थी ।’
// सुबह तड़के ही निकलना है //
सुबह और तड़का एक साथ यों प्रयुक्त न कर इसे कल तड़के ही निकलना है या कल अलस्सुबह निकलना है, आदि उचित होगा ।
बहरहाल, आपका प्रयास दीर्घकालिक अभ्यास तथा मंच से आपकी संलग्नता का द्योतक है.
सादर
पलायन तो आज के दौर में जिंदगी का एक हिस्सा बन गया है, जो बहुत सारे परिवारों की हकीकत हो गई , ये लघुकथा भी ऐसी बात पाती है -बधाई हो
मीना जी आपकी कथा में पलायन शब्द का सार्थक प्रयोग नहीं हुआ है -- पलायन भगोडेपंन को कहते हैं i सादर .
जिस आँगन में खेले कूदे उस आँगन से दूर
इक रोटी की खातिर आये होकर हम मजबूर
पलायन के दर्द को उॉगर करती इस लघुकथा के लिए कोटि कोटि बधाई l
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