बैजनाथ शर्मा 'मिंट'
अरकान - 122 122 122 122
गमख्वार समझा था मक्कार निकला|
जो दिखता था सज्जन गुनहगार निकला|
जिसे नासमझ हम समझते थे यारों ,
वो मुझसे भी ज्यादा समझदार निकला|
खुशामद की जिसको है हासिल अदाएँ,
वही जग में यारों अदाकार निकला|
हँसी दे के जो ले ज़माने के आँसू,
वही यार सच्चा खरीदार निकला|
न जीते-जी पूछे गए जिसके नगमें,
वही बाद मरने के फनकार निकला|
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथलेश वामनकर साहेब...... मार्ग दर्शन के लिए .....आभारी हूँ |
आदरणीय श्याम वर्मा जी, आदरणीया कान्ता राय जी ............ शुक्रिया
जिसे नासमझ हम समझते थे यारों ,
वो मुझसे भी ज्यादा समझदार निकला-----वाह !!!! क्या खूब समझदारी की बात हुई कही है। ग़ज़ल बड़ी ही शानदार हुई है आपकी आदरणीय बैजनाथ जी , बधाई कबूल फरमाइए।
आदरणीय बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई
जिसे समझा गमख्वार, मक्कार निकला|........... मिसरा बेबह्र हो रहा था
जो दिखता था सज्जन गुनहगार निकला|
जिसे नासमझ हम समझते थे यारो ,
वो हमसे भी ज्यादा समझदार निकला|.............. शुतुर्गुरबा के कारण
खुशामद की जिसको है हासिल अदाएँ,
वही जग में यारो अदाकार निकला|................... यारो.... संबोधन के कारण
सादर
बहुत खूब ॥ आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ |
आदरणीय कबीर साहेब ...............शुक्रिया | मैं पुन: देख लेता हूं |
आदरणीय सारथी साहेब .....शुक्रिया
वही बाद मरने के फनकार निकला|...क्या बात
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