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वजूद बनाम सरहदें (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सुनो, मैं वक़्त पर ही और भी ज़्यादा पैसे भेज दिया करूँगा, तुम्हें नौकरी करने की कोई ज़रूरत नहीं है अब, अम्मी और अब्बूजान को ख़ुश रखने में ही हमारी और तुम्हारी ख़ुशी है , वरना....!"

सेल फोन पर सरहद से सरहदें फिर तय की जा रही थीं, तो ग़ुस्से में शबाना ने फोन बिस्तर पर फैंक दिया ! फिर वही बातें, मैं ज़ल्दी ही छुट्टी पर आऊँगा , ये मत करना, वो मत करना , यहाँ मत जाना, वहां मत जाना !! शबाना ने कभी सोचा न था कि पढ़ा लिखा सैनिक भी मज़हब के मामले में इतना कठोर व कट्टर हो सकता है ! काश वह भी अपने माँ-बाप की बनाई सरहदों में रहती तो रोशन से प्यार-मुहब्बत के झमेले में न पड़ती ! वह सोचने लगी कि किस तरह उसने माँ-बाप को राजी करके रोशन से ही शादी कर के सैनिक की बीवी होने का अपना सपना पूरा किया था।

तभी सास के कर्कश स्वर सुनाई दिए- "बहू, नमाज़ अदा नहीं करोगी क्या आज भी ? अरे, हमारी फिक्र नहीं है नौकरी की वज़ह से, तो कम से कम अल्लाह पाक को तो ख़ुश कर लो !"

"अम्मी , मैं आप लोगों की ख़िदमत में क्या कमी रखती हूँ जो रोशन से आप हमारी शिक़ायतें करती हो ? आज तो हद हो गई, उन्होंने तलाक़ की धमकी तक दे डाली !"

"धमकी ही दी है न अभी ? सोचना तुम्हें है, उसे तो और भी मिल जायेंगीं ! " - सास का यह ताना सुनकर आज शबाना भी बोल पड़ी -

"मिल तो मुझे भी जाएंगे, अम्मी ! मेरी पढ़ाई लिखाई घर में क़ैद रहने के लिए नहीं है, मैं नौकरी हरग़िज़ नहीं छोड़ूंगी, ये नये ज़माने में मेरे वजूद का सवाल है, सरहदों का नहीं !"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 5, 2016 at 5:17pm
मेरे इस ब्लोग पोस्ट पर उपस्थित हो कर समीक्षात्मक टिप्पणियों व प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सतविंदर कुमार जी व आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी ।
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 5, 2016 at 2:55pm

आर्थिक रूप से मजबूत और अपने पैरों पर खड़ी नारी अनावश्यक ताने और अपमान क्यों सहे। औरों को सीख देती  इस सुंदर कथा पर मेरी बधाई स्वीकार करें शहजाद भाई

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 5, 2016 at 1:17pm
बेहद ख़ूबसूरत लघुकथा।बधाई आदरणीय

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