1222 1222 1222
बजाहिर जो लगे हैं ग़मगुसार अपना
छिपा लाये हैं फूलों में वो ख़ार अपना
बहुत गर्मी यहाँ मौसम ने दी हमको
जिधर ग़ुज़रे उधर बांटे बुखार अपना
जो लूटे हैं वो वापस क्या हमें देंगे
चलो हम ही कहीं खोजें करार अपना
ज़रा रुकना, उन्हें गाली तो दे आयें
नहीं अच्छा रहे बाक़ी उधार अपना
बुढ़ापा बोलता तो है , सहारा ले
मगर अब भी उठाता हूँ,मैं भार अपना
मै सीरत , सादगी से खिंच के आया हूँ
तू ज़ुल्फों को, न चेह्रे को, निखार अपना
तेरे दफ्तर की नाराजी परे ही रख
न घर में यूँ तू ग़ुस्से को उतार अपना
तेरी इंसानियत कोई न सूंघेगा
गुमाँ में यूँ न इक लम्हा गुज़ार अपना
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शेख शहज़ाद भाई , गज़ल पर शिर्कत और हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
प्रिय अनुज रवि , गज़ल की सराहना के लिये आपका शुक्रिया ।
आपकी सलाह उचित है -- न घर में यूँ कभी गुस्सा उतार अपना -- मै सुधार कर लूंगा । आपका पुनः आभार ।
आदरनीय नूर भाई , सराहना के लिये आपका शुक्रिया ।
आइरणीय गिरिराज जी बहुत बढि़या ग़ज़ल हुई है
बुढ़ापा बोलता तो है , सहारा ले
मगर अब भी उठाता हूँ,मैं भार अपना
बहुत अच्छा शेर लगा हमें बधाई
तेरे दफ्तर की नाराजी परे ही रख
न घर में यूँ तू ग़ुस्से को उतार अपना इसके सानी मिसरे में हमें गुस्से के साथ अपने सही लगता है पर रदीफ के लिहाज से इसे अगर
न घर में यू कभी गुस्सा उतार अपना करे तो देखे तो कैसा लगेगा । सादर
वाह... खूब ग़ज़ल हुई है ..बधाई
आदरनीय अजय भाई , गज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
तेरे दफ्तर की नाराजी परे ही रख
न घर में यूँ तू ग़ुस्से को उतार अपना..........kya baat hai sir ....
आदरणीय महर्षि भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
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