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बोलते पलों का घर .....

बोलते पलों का घर .....

हमारे और तुम्हारे बीच
कितनी मौनता है
एक लम्बे अंतराल के बाद हम
एक दूसरे के सम्मुख
किसी अपराध बोध से ग्रसित
नज़रें नीची किये ऐसे खड़े हैं
जैसे किसी ताल के
दो किनारों पर
अपनी अपनी खामोशी से बंधी
दो कश्तियाँ//

कितने बेबस हैं हम
अपने अहंकार के पिघलते लावे को
रोक भी नहीं सकते//

चलो छोडो
तुम अपने तुम को बह जाने दो
मुझे भी कुछ कहने को
बह जाने दो
शायद ये खारा पानी
हमारी मौनता को स्वर दे दे
अंतर्मन की गहन कंदराओं में व्याकुल
मौन भावों को
जीवन रागिनी से झंकृत
बोलते पलों का घर दे दे//

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on January 21, 2016 at 9:07pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी सृजन में निहित भावों को आपकी सहमति ने जो मान दिया है उसके लिए बंदा आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार है। आपका सुझाव स्वागतेय है। मौनता के स्थान पर मौन किया जा सकता है उससे भाव में को फर्क नहीं पड़ेगा। इस सुझाव के लिए हार्दिक आभार। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2016 at 7:31pm

आदरणीय सरना भाई , एक मनः स्थिति का सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है , हार्दिक बधाई ।

मुझे लगता है  मौनता की जगह मौन सी काफी है , देख लीजियेगा ।

Comment by Sushil Sarna on January 21, 2016 at 1:36pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी प्रस्तुति में निहित भावों को अपने स्नेहासक्त शब्दों से मान देने का हार्दिक आभार। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2016 at 9:08pm

आदरणीय सुशील सरना सर, बहुत बढ़िया भावाभिव्यक्ति हुई है. हार्दिक बधाई 

Comment by Sushil Sarna on January 19, 2016 at 7:29pm

आदरणीय   TEJ VEER SINGH   जी प्रस्तुति पर मन मुदित करती आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार। 

Comment by TEJ VEER SINGH on January 19, 2016 at 1:10pm

हार्दिक बधाई अदरणीय सुशील सर्ना जी!बेहतरीन प्रस्तुति!

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