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ग़ज़ल-मुझे फिर लगे आज तानों के पत्थर।

१२२ १२२ १२२ १२२

मुझे फिर लगे आज तानों के पत्थर।
कई बद से बदतर जुबानों के पत्थर।

ग़ज़ल के ये लहजे नये है, जवां है।
न समझो इन्हें तुम ढलानों के पत्थर।

जिन्हें कब्र पर शाह की रख गये तुम।
वे पत्थर है मुफलिस मकानों के पत्थर।

खता आज ऐसी हुई है कि मुझको।
लगेंगे हजारों जमानों के पत्थर।

समझता नहीं चाल उसकी कभी वो।
पडे है जहन पर गुमानों के पत्थर।

बहुत दर्द था रात आहों में उनकी।
उठा ले गये वो दुकानों के पत्थर।

मकाने मुहब्बत अभी तक अधूरा।
उठा लो चलो कुछ ईमानों के पत्थर।

उसे वस्ल के लफ्ज से सख्त नफरत।
मुझे हिज्र जैसे विरानों के पत्थर।

मौलिक व अप्रकाशित ।

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Comment by Ravi Shukla on January 29, 2016 at 11:51am

आदरणीय राहुल डांगी जी ,बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें !

Comment by TEJ VEER SINGH on January 25, 2016 at 6:19pm

हार्दिक बधाई आदरणीया राहुल डांगी जी!बेहतरीन गज़ल!

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 25, 2016 at 5:26pm
शुक्रिया आदरणीय समर जी सुधार करता हूँ
Comment by Samar kabeer on January 25, 2016 at 5:20pm
जनाब राहुल डांगी जी आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें !
दूसरे शैर का ऊला मिसरा बह्र से खारिज हो रहा है,चोथे शैर में सही शब्द है"ज़ेह्न"इस लिहाज़ से ये मिसरा इस तरह होना चाहिये"पड़े ज़ेह्न पर जो गुमानों के पत्थर "देखे !

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