मैं राजपथ हूँ
भारी बूटों की ठक ठक
बच्चों की टोली की लक दक
अपने सीने पर महसूसने को
हूँ फिर से आतुरI
सर्द सुबह को जब
जोश का सैलाब
उमड़ता है मेरे आस पास
सुर ताल में चलती टोलियाँ
रोंद्ती हैं मेरे सीने को
कितना आराम पाता हूँ
सच कहूं ,तभी आती है साँस में साँस
इतराता हूँ अपने आप पर I
पर आज कुछ डरा हुआ हूँ
भविष्य को लेकर चिंतित भी
शायद बूढा हो रहा हूँ I
बस मेरी रौनक के इंतज़ार में
सर्द रात से ठिठुरते बैठे लोग
कहाँ गए सब ?
हवा में हर तरफ एक
रस्म निभाने की डरी हुई मजबूरी
क्यों फ़ैली है ?
मैं राजपथ
फिर से खिलखिलाना
और इतराना चाहता हूँ
नहीं चाहता हूँ बूढा होना
और डरना तो बिलकुल नहीं
कब हो सकेगा ऐसा ?
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आदरणीया प्रतिभाजी, इस प्रस्तुति की गहनता ध्यानाकृष्ट करती है. हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ
आदरणीया प्रतिभा जी, आपकी संवेदनशीलता को नमन है. अद्भुत भावुक रचना हुई है जिसके शब्द गहरे तक प्रभावित कर रहे है. आशंकाओं की चिंता और भय को बहुत सधे हुए शब्द मिले है. कविता अपने मर्म तक पाठक को न केवल बहा ले जाती है बल्कि डूब जाने को मजबूर करती है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई और धन्यवाद
उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी
आपने रचना के मर्म को महसूस किया ,हार्दिक आभार आदरणीय सतविंदर जी
उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीया कल्पना जी
हार्दिक बधाई आदरणीय प्रतिभा जी!सामयिक और संदेश परक प्रस्तुति!
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