प्रिये,
सच तो ये है
जब तक मै रहूंगा ‘आदम’
और तुम ‘ईव’
तब तक हम खाते रहेंगे ‘सेब’
भोगते रहेंगे 'नर्क'
इससे तो बेहतर है
'मै' बन जाउं 'जंगल'
घना ओर बियाबान
तुम बहो उसमे
'नदी' सा हौले - हौले
या फिर मै
टंग जाउं आसमान मे
चॉद सा
और तुम बनो
मीठे पानी की झील
सांझ होते ही मै
उतर आउं जिसमे
चुपके से,
हिलूं। तैरूँ। इतराऊँ
सुबह होते ही फिर
टंग जाऊँ आसमान मे
या तो,
ऐसा करते हैं
मै बन जाता हूं 'आंगन'
जिसमे तुम उग आओ
तुलसी बन के
या कि ऐसा करो
तुम बनो धरती
मै,बन जाउं बादल
फिर तुझसे मिलने आऊं
सावन भादों मे
झम झमा झम झम
मुकेश इलाहाबादी ...
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
bahut bahut shukriaa Hari Prakash Dubey jee is hauslaa aafzaee ke liye
सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आ. मुकेश जी ! सादर
jee bahut bahtu aabhar rachna pasandgee ke liye mitra - taj veer sing jeeaur Satvinder jee
हार्दिक बधाई आदरणीया मुकेश जी!बहुत खूबसूरत प्रस्तुति!
jee - Shayad aapne sahee kahaa - per bina SEB bhee to her insaan ke liye zarooree hai - thnx for liking the post
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