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क्यूं ये` तक़दीर मेरी उलझती रही। (ग़ज़ल )

मापनी - 212 212 212 212
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क्यूं ये` तक़दीर मेरी उलझती रही।
ज़िन्दगी रात दिन खूब जलती रही।
 
रास्ते गुम हुए मंज़िलें लापता,
बस थकन मेरी` हरसू भटकती रही।।
 
दिल में` साजन के आने की चाहत लिए,
सामने आइने के संवरती रही ।।
 
मेरी` तक़दीर भी जैसे` अंगार हो,
जेठ की दोपहर सी ही` तपती रही ।।
 
ढल गयी रात बेटा नहीं आया` घर।
फ़िक्र माँ की लगातार बढ़ती रही।।
 
मौत का ख़ौफ़ उसको डराता भी`क्या |
आखिरी साँस तक खूब लड़ती रही।।
 
ये मुहब्बत नहीं छोड़े` पीछा मे`रा।
याद सीने से` आ कर लिपटती रही।।
 
-----आलोक `उदित`------
----रायपुर--- (C, G.)

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Comment by Alok Mittal on February 3, 2016 at 4:00pm

आद. Hari Prakash Dubey जी...शुक्रगुजार हूँ आपका तहे दिल से आपने मेरा मान बढ़ाया ...कृपया स्नेह बनायें रखियेगा

Comment by Alok Mittal on February 3, 2016 at 3:57pm

आद. Samar kabeer जी आपका बहुत बहुत आभार ..भूल वश रह गया ...याद दिलाने का आपका बहुत आभार


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Comment by Dr.Prachi Singh on February 3, 2016 at 2:19pm

अलग अलग परिस्थितियों और मनःस्थितियो पर सुन्दर अशआर कहे हैं 

बधाई

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2016 at 12:20am

बहुत खूब हार्दिक बधाई l

Comment by जयनित कुमार मेहता on February 2, 2016 at 6:32pm
वाह! बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही आपने आदरणीय आलोक मित्तल जी!!
Comment by Hari Prakash Dubey on February 2, 2016 at 1:28am

मेरी` तक़दीर भी जैसे` अंगार हो,

जेठ की दोपहर सी ही` तपती रही...वाह ! इस सुन्दर रचना पर बधाई आपको आ. आलोक मित्तल जी ! सादर 

Comment by Samar kabeer on February 1, 2016 at 11:07pm
जनाब अलोक जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
ग़ज़ल के नीचे आपने मौलिक/अप्रकाशित नहीं लिखा है ?

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