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बनारसी गईया चरा के लौटे और उनको चरनी पर बाँध के पीठ सीधा करने के लिए झोलंगी खटिया पर लेट गए। इस बार पानी महीनों से बरस नहीं रहा तो घाँस भी कम हो गयी है सिवान में, गर्मी अलग बढ़ गयी है। गमछी से माथे का पसीना पोंछते हुए मेहरारू को आवाज़ दिए " अरे तनी एक लोटा पानी त पिलाओ रघुआ की महतारी, बहुत गरम है आज"। दरवाज़े पर नज़र दौड़ाये तो साइकिल नहीं दिखी, मतलब रघुआ कहीं निकला है।
" कहाँ गायब हौ तोहार नवाब, खेत बारी से कउनो मतलब त नाहीं हौ, कम से कम गईया के ही चरा दिहल करत", पानी लेते हुए मेहरारू से बोले। ऐसे समय अक्सर रघुआ की महतारी चुप ही रहती है, पता है कि न तो ई मानेंगे और न रघुआ।
" अरे ऊ बजारे गयल हौ, कुछ किताब ख़रीदे खातिर। अब ओकर मन पढ़ाई में लगल हौ, त पढ़ लेवे द ओके", लोटा लेकर वापस जाते समय धीरे से बोली।
पानी पीकर थोड़ा ताज़ा हुआ मन तो चारा काट कर भूषा में मिलाकर नाँद में डाल दिया उसने। सब गायों को बाँध कर झउआ उठाया और गोबर फेंकने चल दिया, खाद और उपरी का इंतज़ाम तो हो ही जा रहा है इससे।
रघुआ बगल के गाँव के सिवान में एक जगह पेड़ों की ओट में साइकिल खड़ा करके इंतज़ार कर रहा था। आज वैलेंटाइन डे था और उसको भी कुछ देना था अपनी सरोज को, टी वी और अख़बार से उसे इतना तो पता चल ही गया था। एक अँगूठी खरीद लिया था उसने, सोने की तो नहीं थी लेकिन किताबों के लिए मिले पैसे होम हो गए उसमे। चारो तरफ देख रहा था वो कि कोई और तो नहीं देख रहा है, डर तो लगा ही रहता था लोगों का। कुछ आहट हुई और उसने पलट के देखा, सरोज दुपट्टा ओढ़े उसकी तरफ आ रही थी। जैसे ही वो करीब आई, उसको उसने अंगूठी पकड़ाई और मुस्कुरा दिया।
" अरे ई का ले आये, लगता है एक तीर से दो निशाना साध रहे हो तुम", और लजाकर अँगूठी उसने अपनी उंगली में डाल लिया। एक बार चारो तरफ नज़र दौड़ाया सरोज ने और फिर एक बार हाथ हिलाकर चल पड़ी।
" अब कब मिलोगी सरोज ", उसने धीरे से पूछा। जवाब में मुस्कुराकर वो चली गयी। रघुआ ने साइकिल उठाया और घर चल पड़ा, शाम ढल चुकी थी, लोगों के घर लालटेन और बल्ब जल गए थे। घर पर साइकिल खड़ा करके वो दलान में घुसा और तभी बनारसी ने टोक दिया " कहाँ इतनी देर तक घूमत रहे, पढ़ाई लिखाई तो मन लगाकर कर करत हो न आजकल"।
आदतन हूँ कहकर वो घर में घुस गया, कपड़े निकाले और मुँह हाथ धोने लगा। मतारी ने खाने का पूछा तो थोड़ी देर बाद बोलकर अपने खटिया पर बैठ गया। किताब में रखी सरोज की फोटो देखकर वो उसके सपनों में खो गया था, मतारी चूल्हे के पास उसे देखते हुए उसके उज्जवल भविष्य के सपने में खोई थी और दुआरे बनारसी अपने झोलंगी खटिया पर लेटे लेटे अपने खेती और गईया के सपनों में खोया था।
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on February 17, 2016 at 2:29pm

बहुत बहुत आभार आ तेज वीर सिंह जी 

Comment by TEJ VEER SINGH on February 16, 2016 at 12:48pm

हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी!बेहतरीन प्रस्तुति!

Comment by विनय कुमार on February 16, 2016 at 12:40pm

बहुत बहुत आभार आ लक्ष्मण धामी जी 

Comment by विनय कुमार on February 16, 2016 at 12:39pm

बहुत बहुत आभार आ शेख भाई, कृपया टंकण त्रुटियों की ओर इशारा भी कर दें 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 16, 2016 at 11:43am

आ0 भाई विनय कुमार जी हर वक्त की युवा होती पीढ़ी का यही हाल होता है । बस यही कहा जा सकता है कि ......इश्क ने निकम्मा कर दिया गालिब..........

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 15, 2016 at 12:54pm
सभईं को उल्लू समझ कैं उल्लू बनावैं..जै वेल-एन्ड-टाईम दिवसवा..
बेहतरीन प्रस्तुति में टंकण त्रुटियां भी बुरी नहीं लगीं। सादर हार्दिक बधाई आपको सुंदर सार्थक संदेश सम्प्रेषित करती रचना के लिए आदरणीय विनय कुमार सिंह जी।

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