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शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा
शह्र में हर कोई भागता-सा लगा
अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू
आज कोई मुझे आइना-सा लगा
यूं मुझे ज़ीस्त के तज़्रिबे थे कई
तज़्रिबा इश्क़ का पर नया-सा लगा
क़ामयाबी मुक़द्दर के हाथ आ गई
कोशिशों से कोई ढूंढता-सा लगा
त्यौरियां हुक्मरानों की चढ़ने लगीं
जब भी आम-आदमी खुश ज़रा-सा लगा
जिस्म-ओ-जां एक कब के हुए थे,मगर
दरमिया कुछ-न-कुछ फ़ासला-सा लगा
कुछ परिंदों का जब से बसेरा हुआ
वो शजर उम्र-भर फिर हरा-सा लगा
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जयनित कुमार मेहता
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ० भाई जय नित जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है l हार्दिक बधाई l
शह्र को ही क्यों न कर्ता बना दें ?
शह्र कुछ इस कदर भागता-सा लगा
हर कोई बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा ........ मैं आदरणीय समर साहब से अनुमोदन चाहूँगा.
"कुछ परिंदों का उसपे बसेरा हुआ
फिर शजर उम्र-भर वो हरा-सा लगा"
भाई, यहाँ सानी में काल का सही प्रयोग नहीं हो पा रहा है और शेर दोषयुक्त हो जा रहा है.
इसे यों देखें -
देख कर कुछ परिन्दे सही, आ गये
सूखता वो शजर फिर हरा-सा लगा .................महज़ काल और भाव को ठीक करने के लिहाज से ये कोशिश है. आप इसी आधार पर और बेहतर कर सकते हैं
शुभेच्छाएँ
आदरणीय सौरभ जी, आपके इस शेर-दर-शेर मूल्यांकन से हृदय गदगद हो गया मेरा। आपने मेरी रचना की सुंदरता के लिए इतनी मेहनत की।
सहस्त्रों बार नमन करता हूँ आपको।
तथा शुभकामनाओं के लिए हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ।।
आपके सुझाव के आधार पर मतला कुछ यूँ रहे तो कैसा लगेगा?
"शह्र में इस क़दर भागता-सा लगा
हर कोई बाघ-सा तेंदुआ-सा लगा"
इसी तरह आखिरी शेर ग़ज़ल का,
"कुछ परिंदों का उसपे बसेरा हुआ
फिर शजर उम्र-भर वो हरा-सा लगा"
आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।
सादर!!
आदरणीय समर कबीर साहेब, तहे दिल से आपको शुक्रिया।।
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्र जी, हार्दिक धन्यवाद आपको।।
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूँ आपके प्रति। सादर!!
शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा
शह्र में हर कोई भागता-सा लगा
उला में शेर बाघ तेंदुआ सारे जमा हो गये हैं और मतला चिड़ियाघर की मानिंद लग रहा है. उला को क्यों न कुछ यों करें - शख़्स इक बाघ या तेंदुआ-सा लगा ..
मैं अन्य सुधीजनों के कहे की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू
आज कोई मुझे आइना-सा लगा
सानी को और मज़बूत कीजिये जयनित भाई. उला की ताकत कहीं अधिक है.
यूं मुझे ज़ीस्त के तज़्रिबे थे कई
तज़्रिबा इश्क़ का पर नया-सा लगा
आय हाय ! आय हाय ! कमाल है कमाल है ! ये है शेर आपका !
क़ामयाबी मुक़द्दर के हाथ आ गई
कोशिशों से कोई ढूंढता-सा लगा
बहुत खूब जनाब ! बहुत खूब ! मेरी उमर ले जाओ भाई .. और खूब लिखो.. वाह !
त्यौरियां हुक्मरानों की चढ़ने लगीं
जब भी आम-आदमी खुश ज़रा-सा लगा
हम्म ! ऐसा होता है क्या ? आम-आदमी अगर पार्टी वाला है और हुक्मरान दिल्ली के हैं तो बात सोचने वाली है.... हा हा हा हा..
जिस्म-ओ-जां एक कब के हुए थे,मगर
दरमिया कुछ-न-कुछ फ़ासला-सा लगा
वल्लाह ! आपकी महीन नज़र का जवाब नहीं भाई..
कुछ परिंदों का जब से बसेरा हुआ
वो शजर उम्र-भर फिर हरा-सा लगा
इस शेर पर और काम करना ज़रूरी है. जब से बसेरा हुआ है परिन्दों का तो शजर उम्र-भर से कैसे हरा दिखने लगा ? क्या परिन्दों के बसेरे से पहले से हरा भरा था वो शजर ? तो फिर शेर का भाव-विस्फोट क्या हुआ ?
आपकी कोशिशों के लिए दिल से बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएँ, जयनित भाई..
शुभ-शुभ
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