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ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती ये बारिश बँध के इन नदियों को भी बहने कहाँ देती गजब का तैश अहदे नौ के इस आदम में देखा है ये ऐठन आदमी को आज कुछ सहने कहाँ देती हुए आजाद आजादी मिली कहने को बस हमको मगर दहशत दिलों की कुछ हमें कहने कहाँ देती ये बहशीपन ये गुंडागर्दी ये आतंक का साया शराफत मेरी दुनिया में मुझे रहने कहाँ देती महाजन का ही कर्जा माँ ने अब तक न चुकाया है ससुरजी सोचिये मुफलिस वो माँ गहने कहाँ देती खुदा का ध्यान रख माथा नवाया माँ के चरणों में कृपा माँ की कोई दीवार है ढहने कहाँ देते मौलिक व अप्रकाशित |
Comment
जयनित जी ..आपका परामर्श मेरे लिए बहुमूल्य हैं ...इस रचना पर फिर समय दूंगा ..प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल आभारी हूँ सादर
लक्ष्मण भाई जी ..आपकी प्रतिक्रिया से बड़ा उत्साह मिला / हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर
आदरणीया कांता जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर
आदरणीय समर कबीर जी ..रचना पर आपका मार्गदर्षन हमेशा मिलता है ..इससे नई ऊर्जा मिलती है ...आपका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहे इस कामना के साथ सादर
आदरणीय पंकज जी ..आपका सुझाव मेरे लिए अमूल्य है ..मैं आपकी बात से सहमत हूँ ..मतले के शेर क दुसरे मिसरे पर आपके परामर्श का इंतज़ार रहेगा ..हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने। हार्दिक बधाई आपको।
ग़ज़ल को थोड़ा वक़्त और देंगे तो ये रचना निखर जाएगी।
सादर!!
आ0 आशुतोष कुमार जी, सुन्दर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई l
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