1222 1222 1222 1222
धरा है घूर्णन में व्यस्त, नभ विषणन में डूबा है
दशा पर जग की, ये ब्रह्माण्ड ही चिंतन में डूबा है
हर इक शय स्वार्थ में आकंठ इस उपवन में डूबी है
कली सौंदर्य में डूबी, भ्रमर गुंजन में डूबा है
बयां होगी सितम की दास्तां, लेकिन ज़रा ठहरो
सुख़नवर प्रेयसी के रूप के वर्णन में डूबा है
उदर के आग की वो क्या जलन महसूस कर पाए
जो चौबीसों घड़ी ही अनगिनत व्यंजन में डूबा है
संवारेगा वो किस्मत देश की, बस पेटियां भर ले
अभी कुछ दिन हुए आए, अभी शोषण में डूबा है
न मतलब ईश्वर तुझ से, न तुझ से वास्ता अल्लाह
ज़माना सिर्फ आय और व्यय के विश्लेषण में डूबा है
अधीन उन्माद के उसके हुए हैं चेतन-अवचेतन
जो क्षण भर को भी "जय" मदिरा भरे लोचन में डूबा है
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जयनित कुमार मेहता
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सुशील सरना जी, आपकी प्रतिक्रिया से मेरा श्रम सार्थक हुआ लगता है। बहुत-बहुत आभार।।
आदरणीय मदन मोहन सक्सेना जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।।
आदरणीय कान्ता रॉय जी, रचना पर आपकी उपस्थिति व सराहना के लिए आपका आभारी हूँ।।
आदरणीय मोहित मिश्रा जी, हार्दिक धन्यवाद आपको।।
हर इक शय स्वार्थ में आकंठ इस उपवन में डूबी है
कली सौंदर्य में डूबी, भ्रमर गुंजन में डूबा है
बयां होगी सितम की दास्तां, लेकिन ज़रा ठहरो
सुख़नवर प्रेयसी के रूप के वर्णन में डूबा है
...... वाह वाह वाह आदरणीय बहुत ही सुंदर शब्दों,भावों और अलंकारों का संगम है आपकी ये मनोहारी प्रस्तुति ... दिल से बधाई स्वीकार करें।
उदर के आग की वो क्या जलन महसूस कर पाए
जो चौबीसों घड़ी ही अनगिनत व्यंजन में डूबा है
न मतलब ईश्वर तुझ से, न तुझ से वास्ता अल्लाह
ज़माना सिर्फ आय और व्यय के विश्लेषण में डूबा है
वाह !
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