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न कोई दिन बुरा गुजरे न कोई रात भारी हो
जुबाँ को खोलना ऐसे न कोई बात भारी हो /1
दिखा सुंदर तो करता है हमारा गाँव भी लेकिन
बहुत कच्ची हैं दीवारें न अब बरसात भारी हो /2
न तो धर्मों का हमला हो न ही पंथों से हो खतरा
न इस जम्हूरियत पर अब किसी की जात भारी हो /3
पढ़ा विज्ञान है सबने करो तरकीब कुछ ऐसी
न तो हो तेरह का खतरा न साढ़े सात भारी हो /4
महज इक हार से जीवन नहीं बुनियाद खो देता
हमारे हौसले पर फिर न कोई मात भारी हो /5
समझ लेना चमन में फिर उठेगा जलजला कोई
‘मुसाफिर’ पेड़ पर जब भी महज इक पात भारी हो /6
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ० भाई मनोज जी हार्दिक आभार l
आ0 भाई धर्मेन्द्र कुमार जी, उत्साहर्धन के लिए आभार ।
आ0 भाई गिरिराज जी , आपकी उपस्थिति और सकारात्मक प्रतिक्रिया से उत्साहदूना हुआ । इस स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई रवि शुक्ला जी, गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार। स्नेह बनाए रखें।
आ0 भाई नादिर खान जी आपकी विस्तृत और सकारात्मक प्रतिक्रिखा से अत्यधिक उत्साहवर्धन हुआ । हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई समर कबीर जी गजल पर उपस्थिति और अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय लक्ष्मण जी, दाद कुबूल करें।
महज इक हार से जीवन नहीं बुनियाद खो देता
हमारे हौसले पर फिर न कोई मात भारी हो -- बेहतरीन बात कही ! बहुत सुन्दर गज़ल कही है , गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाई ।
आदरणीय लक्ष्मण जी बढिया अशआर हुए है शेर दर शेर बधाई कुबूल करें
न तो धर्मों का हमला हो न ही पंथों से हो खतरा
न इस जम्हूरियत पर अब किसी की जात भारी हो ......आमीन
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