बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२
नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम
उदर की राह से धमनी में आ गई हो तुम
मेरे दिमाग से दिल में उतर तो आई हो
महल को छोड़ के झुग्गी में आ गई हो तुम
ज़रा सी पी के ही तन मन नशे में झूम उठा
कसम से आज तो पानी में आ गई हो तुम
हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी
लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम
बदन पिघल के मेरा बह रहा सनम ऐसे
ज्यूँ अब के बार की गर्मी में आ गई हो तुम
चमक वही, वो गरजना, तुरंत ही बारिश
खफ़ा हुई तो ज्यूँ बदली में आ गई हो तुम
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जयनित जी। सुधार कर दिया है। विचार करने के बाद लगा कि आप लोग सही कह रहे हैं।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राहुल जी
बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा Rahila जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुनील जी
जनाब समर साहब, आप तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। ग़लतियों की तरफ़ इशारा करने के लिए भी आपका शुक्रिया अदा करता हूँ।
आख़िरी शे’र का ऊला मैं सही कर रहा हूँ।
तीसरे शे’र के ऊला में जो मज़ा "झूमुट्ठा" पढ़ने में है वो "झूम उठा" पढ़ने में नहीं है इसलिए यहाँ "झूमुट्ठा" जानबूझकर रखा गया है।
एक बार फिर तह-ए-दिल से शुक्रिया।
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