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ग़ज़ल: कांच के जज़्बात

कांच के जज़्बात, हिम्मत कांच की

यार ये कैसी है इज्जत कांच की

.

पालते हैं खोखले आदर्श हम-

माँगते हैं लोग मन्नत कांच की

.

पत्थरों के शहर में महफूज़ है-

देखिये अपनी भी किस्मत कांच की

.

चुभ गया आँखों में मंजर कांच का-

दब गयी पाने की हसरत कांच की

.

सोचिये अगली सदी को देंगे क्या

रंगीनियाँ या कोई जन्नत कांच की

.

रवीन्द्र प्रभात 

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on March 15, 2016 at 12:21pm

आदरणीय रवीन्‍द्र प्रभात जी बढि़या गजल कही है आपने बधाई स्‍वीकार करें । संभवत: आपका कलाम पहली बार पढ़ा है हमने । जो लोग अभी सीख रहे है उनके लिये गजल से पहले उसकी बह्र या मात्रिक वज्‍न लिख देंगे तो आसानी होगी और यह मंच का नियम भी है । सादर

Comment by रामबली गुप्ता on March 15, 2016 at 11:43am
शानदार बधाई स्वीकार करें

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