इस बार बारिशें देर से हुई है। हुई भी तो क्या न खेत खलिहान भीगे, न डबडबाया बड़ा बाला ताल । उमगती रह गई घाघरा इधर से उधर। न नानी का कवनों टोटका काम आया न नंग-धरंग बच्चों का अनुष्ठान । कभी उत्तर से तो कभी दक्षिण से, कभी पूरब से तो कभी पश्चिम से रह-रहके एक ही आवाज आती रही ‘‘काल-कलौती-पीयर-धोती मेघा सारे पानी दे’’। बच्चों के अनुरोध पर पानी तो दिया इंद्र भगवान ने मगर मूत के बराबर । कायदे से न ढोर-डांगर भीगे न ताल-तलैया । चारो तरफ बस कीचड़ हीं कीचड़ । जिस तरह से बादर उमड़ घुमड़ आये थे, लग रहा था झम के बरसेगी बरखा रानी इस बार। फिर क्या अविरल बारिश के बाद पूरे गाँव के साथ मिलकर हम नानी की काली चौरे पर मीठी लपसी और पूरियां जीमेंगे जी भर के । मगर विधाता को यह मंजूर ही नहीं था। ट्यूब बेल के पानी से धनरोपनी का काम कर रहे हैं हम सब । अगर फसल कायदे से नहीं हुआ न त कहीं के नहीं रहेंगे ।
कहते-कहते अचानक चुप हो गयी रसबतिया और माथा ठोकती हुयी बोली ‘‘ओह हम्म भी न....इतने दिनों के बाद मरद आया है गाँव और मैं लगी अपनी राम कहानी सुनाने । खैर छोड़ो ये बताओ खाना कैसा बना है ?’’
‘‘अमृत जैसा ।’’
‘‘धत्’’ कहकर आँचल से मुंह छिपाती हुई मुड़ गयी रसबतिया । कई महीनों के बाद पति को सम्मुख पाकर रसबतिया फुली नहीं समा रही थी । पृथ्वी का सारा स्नेह, प्रेम और समर्पण छलक रहा था उसकी दृष्टि मे ।
गाँव में नौकरी पेशा कम थे या ज्यादातर छोटी-छोटी नौकरी वाले थे। कोई ज्यादा पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी पा लेता वह गाँव को बाय-बाय बोलकर निकल लेता था । बड़ा होकर राम औतार ने भी नौकरी हेतु शहर जाने की इच्छा प्रकट की पर माँ का मन नहीं माना, बहुत रोयी, बहुत चिल्लाई की बेटे को दूर नहीं जाने दूँगी पर आखिरकार राम औतार ने मना ही लिया था माँ को ।
बियाह के तुरंत बाद राम औतार चला गया था शहर कमाने के लिए । एक बरस के बाद लौटा है अपने गाँव । रसबतिया के छेड़ने पर कहता है राम औतार कि जब किसी की कोमल आहट पाकर मन का पोर - पोर झनझना जाता है और डराने लगता है सपना तब याद आता है अपना गाँव । न ससुरी झाल न मजीरा, न गीत न जोगीरा, न सारंगा न सदाबरीक्ष, न सोरठी न बिरजाभार, न आल्हा न उदल न कजरी कुछ भी नहीं शहर मे । है तो बस भीड़ मे गायब होते आदमी, गायब होती परंपराए। पॉप की धून पर संगीत के नए- नए प्रयोग.... हाथ का एकतारा छोड़कर बंदूक उठा लेने को आतुर लोकगायक । वातानुकुलित कक्ष में बैठकर मेघ का वर्णन करते कालीदास और बाबा तुलसी गाते हुये ‘‘चुम्मा-चुम्मा।”
कहते-कहते रुक गए अचानक राम औतार के स्वर । ‘‘अरे हम्म भी न बिना मतलब की बात करने लग गए । तू बता कैसी है तू ? गाँव का हाल का है ?’’
‘‘अरे गाँव का हाल पुछौ मत, इधर नहर खुदाई के मसले पर मुखिया जी के मर्डर होई गए उधर सतरोहना ........ ।’’ कहते-कहते घिघघी बंध गयी रसबतिया की ।
‘‘का हुआ सतरोहना को ?’’ रसबतिया को झकझोरते हुये बोला राम औतार ।
इस बार दशहरे की छुट्टी बिताने आया तो चाची ने उसकी शादी कर दी । बढ़ईपुरबा के त्रिलोचन मास्साब की बेटी बुधनी से ।
बियाह का एके सप्ताह गुजारा था, कि सतरोहना का बुलाबा आ गया पल्टन से । टेलीग्राम मे लिखा था जल्दी आओ । कारगिल मे पाकिस्तानी सैनिकों ने धाबा बोल दिया है । चाची बहुत समझाई कि ‘‘बबुआ, होशियारी से रहना, पाकिस्तानी बहुते क्रूर होवत हैं, दया-माया कुछ भी नाही होत उनके पास ।’’
सतरोहना पल्टन को लौट गया । सात दिन बाद उसकी चिट्ठी आई कि वह सकुशल पहुँच गया था और उसे अब कारगिल भेजा जा रहा है । बुधनी राहत की सांस ली और देबी मैया की पूजा मे मशगूल हो गयी ।
उधर गाँव मे अलग-अलग तरह की अफवाहें फैलने लगी । कोई कहता कारगिल पर पाकिस्तानियों ने कब्जा कर लिया तो कोई कहता सरकार छुपा रही है पाकिस्तानी बहुत भीतर तक घुस आए हैं ससुर । कोई कहता अपने देश की सेना की खूबई छती हुयी है तो कोई कहता अरे नाही हमारी फौज ने उन्हें खदेड़ दिया है ।
महिना दिन बीत गया, नहीं आई कोई खबर सतरोहना की । बुधनी रात-दिन अपनी बूढ़ी सास की सेवा करती रही, उन्हें खाना पकाकर खिलाती रही । बरम बाबा से लेके सब देवता-पीतर के सुमेरती रही बारी-बारी से । मगर नहीं आया कोई खत सतरोहना की सलामती का ।
काली पूजा के दिन बुधना ने काली मैया को चढ़ाने के लिए पकवान बनाई और बूढ़ी सास को खिलाने के बाद बेचारी स्वयं खाने के लिए बैठी, मगर उसे लगा कि उसके होंठ प्यास और भूख से सूख गए हैं -ठंड से शरीर नीला हो गया है । बुधनी ने मुंह का निवाला वहीं जमीन पर थूक डाला ।
बूढ़ी सास बोली ‘‘ऐसा क्यों कर रही हो बहू, घर की लक्ष्मी होकर तुम्हें इस तरह अन्न नहीं फेंकना चाहिए, अशुभ होता है ।’’
बुधनी का चेहरा लाल हो गया । उसने फिर थाली सरकाकर पकवान का एक टुकड़ा मुंह मे डालकर चबाने का प्रयास करने लगी । लेकिन उसे वह पकवान नीरा स्वादहीन काठ चबाने जैसा लगा । खुद न खाने से पति का अनिष्ट होगा, घर मे अलक्षण होगा सोचकर उसने एक निवाला मुंह मे डाला, कि उसे उल्टी हो गयी । बूढ़ी सास चकित होकर उसका मुंह देखती रह गयी । उसने फिर उसे खाने के लिए जोर नहीं दिया । उसके नारी हृदय ने समझ लिया -खुशबूदार, मशालेदार पकवान का स्वाद उसकी जीभ ने खो दिया है । पंद्रह साल पहले उसने भी तो उसी तरह स्वाद खो दिया था ।
बस कर रसबतिया बस कर, अब और सुनने का मन नहीं कर रहा । केवल इतना बताओ कि बुधनी कहाँ है ? भीतर ही भीतर असीम दर्द से कराहते हुये पूछा राम औतार ।
‘‘पति के मरने के बाद गाँव के लोग उसे चैन से जीने दे तब न । तरह-तरह के फिकरे कसते रहे बड़का टोला के लोग । कहते हैं कुल्टा है, डायन है, पति को खा गयी । बेचारी तब तक जी जबतक उसकी सास की सांस न बंद हो गयी । जैसे ही उसकी सास मरी, उसने भी चूहा मार दबाई खा के अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी ...... ।’’ कहते-कहते रसबतिया की आँखें भर आई और राम औतार से लिपटते हुये बोली । ‘‘तुम मुझे छोडकर अब शहर नहीं जाओगे न ?’’
राम औतार सोचने लगा कि ‘‘रसबतिया सही कह रही है । आखिर मालिक के भय से, महाजन की धमकी से, बनिए के तकादों से कबतक भागता रहेगा शहर की ओर । ’’ तभी उसने दीवार पर बार-बार चढ़ती हुयी चींटियों को देखा, उसे महसूस हुआ कि ‘‘जब नहीं छोड़ती चींटियाँ दीवारों पर चढ़ना दम तोड़ने की हद तक, तो क्यों छोड़े वह अपना गाँव समस्याओं से भागते हुये । लौटेंगे एक दिन जरूर उसके भी सुख के दिन और वह भी करेगा शंखनाद अपनी सफलता का ।’’
वह इन्हीं सोचों मे खोया था कि रसबतिया ने उसे झकझोरा ‘‘ अरे उठो बहुत तेज बारिश हो रही है, चलो घर के भीतर, प्याज और बेसन की पकौड़ियाँ बनाई हूँ तुम्हारे लिए ।’’
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Comment
कहानी पसंद करने के लिए आप सभी का बहुत-बहुत आभार ।
कहानी को पढ़कर एक अजीब सी शान्ति मिल रही है जो बेचैन भी कर रही है। पात्रों एवँ दशाओं का सुन्दरता से वर्णन है। सामाजिक स्थिति बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर रही है।
एक सफल कहानी के लिए बधाई स्वीकारें
रवीन्द्र प्रभात जी,
ऐसा भी होता है. कभी-कभी होता है. जी करता है, देर तक कोई योंही बतियाता रहता. यों ही. इधर की. उधर की. दुख की. सुख की. मानी-बेमानी. किसी के कहे में बहाव हो न, तो यही होता है.
रसबतिया और रामऔतार के सुभाव के मध्य क्षेपक के तौर पर सतरोहना और बुधनी का प्रसंग. ओह !
भाईजी, कारगिल के मौका पर बरखा हुई भी थी क्या ? छोड़िये, जरूर बदरियाया रहा होगा. मन पर जो घन छा जायँ तो आँखों से बेमौसम की बरखा हुआ करती है. और वो दीखती भी है.
जाने क्यों बहुत दिनों बाद सुखांत के प्रति दिल इतना जिदियाया हुआ था. आभार. ऐसा होता नहीं कि जैसा हुआ है. अंत सुखांत है, सो सुख से आँखें नम हैं. चलो इनके दिन बहुरे, रसबतिया और रामऔतार के, तो सबके बहुरें. उनको मन से आशीष. पर जो होनी है न --हक़ीक़त-- वो अँकुठाई रीढ़ तक को बर्फ़ानी बना देती है. बेचारी फिर भी काँप नहीं पाती, बस जम जाती है.
रवीन्द्र भाईजी, आपकी किस्सागोई दिल में हिलोर मचा गयी है.
दिल से बधाई, भाई. साथ बना रहें और आप बस सुनाते रहें.
आदरणीय रविन्द्र जी ,
जब किसी की कोमल आहट पाकर मन का पोर - पोर झनझना जाता है और डराने लगता है सपना तब याद आता है अपना गाँव । न ससुरी झाल न मजीरा, न गीत न जोगीरा, न सारंगा न सदाबरीक्ष, न सोरठी न बिरजाभार, न आल्हा न उदल न कजरी कुछ भी नहीं शहर मे । है तो बस भीड़ मे गायब होते आदमी, गायब होती परंपराए।
‘‘पति के मरने के बाद गाँव के लोग उसे चैन से जीने दे तब न । तरह-तरह के फिकरे कसते रहे बड़का टोला के लोग । कहते हैं कुल्टा है, डायन है, पति को खा गयी । बेचारी तब तक जी जबतक उसकी सास की सांस न बंद हो गयी ।
प्रिय रवीन्द्र प्रभात जी मन को छू गयी आप की कहानी गाँव के जीवंत दृश्य, शहर में भीड़ और प्राथमिक रिश्तों की कमी , दर्द किसान का, गाँव की कुछ कुरीतियों को दर्शाती बहुत ही प्रभावी रचना ...बधाई हो
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