221 2122 2212 122
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मत पूछ किस लिए वो तेवर बदल रहे हैं
शह पा के दोस्तों की दुश्मन उछल रहे हैं l1l
होगी वफा वतन से यारो भला कहाँ अब
हुंकार जाफरों की शासन दहल रहे हैं l2l
हमको पता है लोगों शैलाब बढ़ रहा क्यों
दरिया के प्यार में कुछ पत्थर पिघल रहे हैं l3l
आँखों को सबकी यारों चुँधिया न दें कहीं वो
तम के दयार में से तारे निकल रहे हैं l4l
ताकत विरोध की तज अपनायी बेबसी क्यों
क्यों खून की जगह पर आँसू उबल रहे हैं l5l
शासन न राम सा अब रावण की पैरवी बस
मत जाओ रात बाहर गुंडे टहल रहे हैं l6l
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मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई रामबली जी, प्रशंसा के लिए आभार ।
आ0 भाई समर जी पुनः उपस्थित हो मार्गदर्शन के लिए आभार ।
आ0 भाई राहुल जी बहुत बहुत धन्यवाद
आ0 भाई रवि जी उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें इस गजल के लिये । अच्छी गजल कही है । एक सवाल आपकी गजल के हवाले से विद्वत जनों से पूछना चाहेंगे इस गजल के अरकान को अगर 2212 122 2212 122 करें तो तकनीकी रूप से या अरूज के लिहाज से कोई फर्क पड़ेगा ? आपके लिखे अरकान के दूसरे रुक्न के पहले (2) को पहले रुक्न में मिला दिया है । सादर
आ० भाई तेजवीर जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद l
आ० भाई समर जी . अभिवादन , ग़ज़ल जी प्रशंसा और त्रुटि की और ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक धन्यवाद .
दूसरे शैर का सानी मिसरा से मैं भी संतुस्ट नहीं था अब उसे " हुंकारता है जाफर शासन दहल रहे हैं " करने पर कैसा रहेगा मार्गदर्शन करें l
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