212 212 212 212
चार दीवारें भी हों छतों के लिये
और क्या चाहिये मुफलिसों के लिये
महफिलें भूख की हो रहीं हैं ज़बां
है सियासत मगर रहबरों के लिये
अत्ड़ियाँ पेट की घुटनों से मिल गईं
अब कहाँ तक झुकें रहमतों के लिये
जिन दरख्तों तले पल रहा आदमी
प्यार की हो नमी उन जड़ों के लिये
लाख दौलत अकूबत है हासिल जिन्हें
वो तरसते मिले कहकहों के लिये
ठोकरें नफरतें झिड़कियों के सिवा
और रक्खा है क्या हरिजनों के लिये
बन्द कर लो भले दर दरीचा मगर
है झरोंखा जरुरी घरों के लिये
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
ह्रदय से अभिनन्दन वन्दन आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी
आपके अमूल्य समय....स्नेह के लिए हार्दिक अभिनन्दन वन्दन आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी
रचना पटल पे आपका स्वागत एवं आभार आदरणीया rajesh kumari जी
आदरणीय गुरुदेव गिरिराज भंडारी जी आपके सुझाव सर्वथा उचित हैं विस्तृत समीक्षा एवं मार्गदर्शन के लिए सदैव आभारी रहूँगा स्नेह बनाए रखें ..
अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय बृजेश जी, दद कुबूल करें।
आदरणीय बृजेश जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. हार्दिक बधाई. बाकी गुनीजनों द्वारा मार्गदर्शन किया गया है उस पर अवश्य गौर कीजियेगा.
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय Ravi Shukla जी...आपके समय आपके स्नेह एवं विस्तृत समीक्षा से लिखना सफल हुआ...इन पँक्तियों में सिर्फ एक कटाक्ष किया है...जिस तरह आज राजनितिक पार्टियाँ दलितमय हो रहीं हैं अपने सभी कर्मों को दलित का चोला ओढ़ा रहे हैं बस उसी को उजागर करने की कोशिश की है आगे आप जो आदेश दें ...
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय Samar kabeer जी
वाह्ह बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है बृजेश जी दिल से बधाई लीजिये |आ० गिरिराज जी ने सही इस्स्लाह दी है|
आ. बृजेश भाई , अच्छी गज़ल कही है दिली बधाइयाँ स्वीकार करे । कुछ टंकण की गलतिया हैं सुधार लीजियेगा ।
लाख दौलत अकूबत मुबारक उन्हें -- इस मिसरे को ऐसे कहें -- लाख दौलत अकूबत है हासिल जिन्हें
वो तरसते मगर कहकहों के लिये वो तरसते मिले कहकहों के लिये
अगर सही लगे तो ?
इक झरोंखा जरुरी घरों के लिये -- इस मिसरे में -- है - की कमी लग रही है , ऐसे कर लें - है झरोंखा जरुरी घरों के लिये
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