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// मत्ले में "अका" काफ़िया होने के बावजूद, आगे पूरी ग़ज़ल में "आ" काफ़िया लेने पर स्वीकार्यता होती है। कई उदाहरण बड़े शायरों के हैं//
अरे लानत भेजिये भाई, ऐसे बड़े शायरों को ! कौन हैं ये ? अरूज़ न संभाल सकने की कमियों को कैसे-कैसे आवरण दिये जाते हैं ? भाई, ये तो वही बात हुई जो सूरदास कह गये हैं - परम गंग छोड़ दुरमति कूप खनावे !
परम गंगा के पास का रहवैया निर्बुद्धि ही होगा जो कुआँ खुदवा कर प्यास बुझाने की बात करेगा. भाई, आप ओबीओ पर हैं !
शब्द प्रयोग एक बात है. और अरुज़ को निभाना और उसके प्रति स्ट्रिक्ट रहना एकदम से दूसरी बात.
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भाई पंकज जी, इस ग़ज़ल का काफ़िया ही दोषयुक्त हो गया है. इता अपनी जगह, आ की मात्रा की जगह ’अका’ है काफ़िया.. आगे अन्य बातें बाद में
सुंदर ग़ज़ल के लिए बधाई ..
मतले में महका और खनका काफ़िया आने से इता दोष लग रहा है मुझे..समर कबीर सर की राय ले लें तो प्रकाश पड़े.
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रेशम सी आवाज़ का ज़ादू, इन भावों में जगा ज़रा।
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ये जो मनमोहक सी तेरी चाल में इक चञ्चलता है।... उपरोक्त दोनों मिसरे अपने सानी के साथ शतुर्गुरबा का आभास दे रहे हैं..
पुनरावलोकन आवश्यक है ..
सादर
आदरणीय पंकज जी अच्छी ग़ज़ल कही है आपने इसके लिये हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
हर्फ़ बिछे हैं कागज़ पर सब, प्राण हीन तन के जैसे।
इन काली रेखाओं को भी, ज़िंदा आज बना दो तो।। इस शेर का भाव बहुत अच्छा लगा । बधाई ।
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