2122 2122 2122 212
इस तरह इक औ नया रिश्ता यहाँ बनता गया
आप हम से ना मिले औ दिल गरां बनता गया
दिल से दिल मिलने लगे जब तो जहाँ बनता गया
प्यार से भरपूर रोशन आशियाँ बनता गया
मिल फकीरों की दुआ से फायदा ये है हुआ
घर मेरा भी धीरे - धीरे आस्तां बनता गया
मैं पलटने जब चला किस्मत तो खाली हाथ था
मेहनत के साथ फिर तो कारवां बनता गया
रोज कुछ बाजार से लाने की आदत बन गयी
और फिर तो घर में मेरे खानमाँ बनता गया
भीड़ से ख़ुद को अलग दिखने की चाहत में देखो
सनकी अच्छे से बुरा हर दम यहाँ बनता गया
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मुनीश “तन्हा” 9882892447
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
मिल फकीरों की दुआ से फायदा ये है हुआ
घर मेरा भी धीरे - धीरे आस्तां बनता गया
वाह बहुत खूब आदरणीय बड़े ही गहरे अहसास पिरोये हैं आपने अपनी इस ग़ज़ल में ... हार्दिक बधाई सर।
इस सुंदर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें । |
आदरणीय मुनीश जी बढ़िया ग़ज़ल कही आपने बदलनेऔर मेहनत को किस वज़न में बाँधा है एकबार और देख लीजिएगा तथा "रोज ही बाजार से कुछ लाने की आदत बन गयी" इस मिसरे की भी तक्तीअ करें उम्दा कोशिश के लिए बधाई आपको....
आदरणीय मुनीश जी गजल के लिये बधाई स्वीकार करें ।
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