22-22-22-22----------2212-1222
सोते रहिये, किसने टोका, जगना कहाँ ज़रूरी है?
ढ़ोते रहिये, जीवन बोझा, रखना कहाँ ज़रूरी है?
क्या मतलब है, और किसी से, अपने रहें सलीके से।
लिखते रहिये, इन पन्नों से, हटना कहाँ ज़रूरी है।।
घर से बाहर, भूले से भी, मेहनत ज़रा न करियेगा।
चिंतन करिये यूँ ही, कुछ भी, करना कहाँ ज़रूरी है।।
राहों में घायल को छोड़ें, व्याकुल पड़े ही रहने दें।
कलयुग में सिद्धार्थ का बुद्धा,बनना कहाँ ज़रूरी है।।
रावण का गुण गाते फिरिये, हरि की कथा निरर्थक है।
सदकर्मी के गुण की माला, जपना कहाँ ज़रूरी है?
पंकज तू भी, छत पर चढ़ कर, प्रभु को ज़रा बुलाया कर।
अन्तस् वाले, प्राणेश्वर का, उगना कहाँ ज़रूरी है?
मौलिक-अप्रकाशित
Comment
ये क्या संशोधन कर दिया पंकज भाई ? ओह ! .. :-((
अरे भाई साहब, मिसरेका वज़न आपने जो दिया था, उसमें से एक ग़ाम (गुरु यानी २) को कम कर देना था. आपने कुल सोलह ग़ाम लिए थे, जबकि आपके सभी मिसरों में पन्द्रह ग़ाम की ही ग़ुंजाइश बन रही थी. बस इसी कारण हमने आपको यह कह कर चौंका दिया कि आपके सभी मिसरे बेबहर हैं.
आप बस २२ २२ २२ २२ - २२ २२ २२ २ कर दें आपका काम दुरुस्त है.
शुभ-शुभ
//ये सही है कि बह्र में फंस गया हूँ। //
कहाँ फँस गये हैं, कुछ अता-पता चला ? या मेरा दिल खुश करने के लिए ये टिप्पणी हुई है ?
:-)))
व्यंग्य की अंतर्धारा से पगी हुई यह ग़ज़ल आपकी सधी हुई ग़ज़लों में से है, पंकज भाई. इस प्रस्तुति में लोकप्रियता के सारे गुण है, बधाई हो !
लेकिन, बुद्ध को बुद्धा के रूप में प्रयोग करने से साग्रह बचना चाहिए. यह शब्दों की विकृति ही है जिसे हम अनायास तो कई बार सायास स्वीकार करते हैं.
लेकिन जो बात आवश्यक रूप से कहना है, वह ये है, कि इस ग़ज़ल के सारे मिसरे बेबहर हैं. भाई, आप स्वयं तक्तीह करें और फिर देखें. आपने सोलह ग़ाम लिये हैं. हैं न ?
शुभेच्छाएँ
इस सुंदर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें । |
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