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आ. कांता रॉय जी नई विधा और दिलकश प्रस्तुति .... वाह भावों सुंदर प्रस्तुति ... हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
धरती पुलक रही थी ----हटा देना है . सादर .
आ० कांता जी , गद्य गीत क्या होता है / शायद होता हो . मैं स्पष्ट नहीं हूँ . शायद कोई प्रकाश डाल सके. मेरी नजर में आज की अतुकांत कविता स्वय में गद्य गीत है .... मैं आपकी कविता को उस रूप में लाने की कोशिश करता हूँ . सादर .
धरती को छूने
आकाश ज्योही सरक कर
नीचे आया
मैं
अपने आप में सिमटती
धरती पर झुक गयी
ऊँचे - ऊँचे पहाड़ों में
निस्पंद- से देवदार
सिमटे खड़े रहे
अपने ही साये में
पहाड़ों को अब भी
लगता वे अलंघ्य हैं \
था एक
उल्लास
वातावरण में
मायावी संगीत
अलग - अलग ताल ,
अलग - अलग रंगों के
अनमोल सपने ,
अविस्मृत अद्भुत
रहस्य , मायाजाल
मोह - पाश का बँधन
मुक्ति की यातनामय चाह
धूप के संग -संग पल -छिन
उजालों के रंग
उनका का भी बदलना
पल छिन ,
मन की अतल
गहराईयों से निकलता
उगता चाँद
उस पर चढ़ती
झीनी - सी चादर
सिन्दूरी रंग की
आकाश के चेहरे का
वह आलोक
वह प्रभामंडल
प्यार की अनोखी खनक
आभासित करता
धरती को
साक्षात् देवदूत
और उसके
खड़े होने की अनुभूति
पुलकती धरती धरती पुलक रही थी ।
मुस्कुराता आकाश
घुटनों के बल
(सीधे पोस्ट पर कोशिश की है वरना और बेहतर हो सकता था ) सादर.
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